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पापुराण धोडा रय भने सुखपाल । हस्ती पर रावण भूवाल ।। दस सिर वीस भुजा सोचत । के आकास ग्रामी विद्यावंत ।।३६६१॥ भूमिगोधरी पृथ्वी पर चल । विद्याधर ऊंचे बहु भले ।। लोप्या भानु न दीस पाकास । महासंघट सेना चिहुं पास ||३६६२।।
ब्रहा । रावण की सेना चली, कंप्या सब संसार || सूर सुभट जोधा घने, कहत न पा पार ३६६३।। इति श्री पपपुराणे रणजोग विभाग
६७ विधामक
चौपाई मन्दोदरी से मन्तिम भेट
मंदोदरी सु रावण इम कहै । तू काहे रिता चित महे ।। सुभटां साथ बर्ण है काम । जो जीवता बचे संग्राम ॥३६६४॥ फिर तोहि सेती होइ मिलाप । हौंणी होइ टर नहीं प्राप ।। बहु विध समझाई अस्तरी । बिछड़े कंत हिए गम भरी ॥३६९५।। ॐो पनि देखी सब सैन । घरि अंगरण जीवकुकुचेन ॥ में समझाई रचि पचि हार । वचन न मान्या मोहि भरतार ॥३६६६।। अब के कहा वरणावै दई । अठारह सहस सोष चित्त भई ॥ एक सहस मंगल मयमंत । स्थसों लगे अंजन गिर मंत ।।३६६।। छत्री कलस प्रति सोभा बणी । रतन जोति सी दमकै घणी ।। राबरण बैठा रथ परि प्राइ ! दस सिर सोहैं बीस मुजाइ ।।३६६८।।
इन्द्र रथ सम रथ नहीं कोइ । प्रेसी सुणी रघुवंसी वोर ॥ राम द्वारा युद्ध की तैयारी
रामचन्द्र केहरि रथ चढे । गरूड वाहन लक्षमन बढे ॥३६६६॥ सेना चली चतुर विध संघ । सुर सुभट मन उठ तरंग ।। इंट्ररथ रघुपति ने देखि । पूछ इह का कहो परेषि ॥३७००। के परफ्त के कोई देस । कहीं न देख्या इसका भेस ।। अंगद बोले जांबूनंद्र 1 इह रष रावण विद्यावत ।।३७०१॥