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मुनि सभाचंच एवं उनका पद्मपुराण
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दसौं दिसा बार्क प्राभरण। श्री जिन बिना कोई नहीं स करि देह जाजरी करो। अंत समय सी मन धरी ।। ३४४७ ।।
त्रिया दुरधी ले गयां ॥
जं में निर्मल भूपति भयो मेरे तप का एह फल व्हेंज्यां । मो सम बली न दुवा मां कहज्यो ।। ३४४८६ ।।
अनंगवर सुं फिर सनबंध हो जो सा किया वह संघ ॥
देही छोडि लही श्रमर विमा श्राव भूगति दसरथ कं गेह अजगर भरि भैसा गति भया
३१७
| पायो स्वर्ग तीसरे थान || ३४४६ ।। भए पुत्र लक्षमण को देह ॥1
। हस्तनापुर जनम जूलिया ३४५० ।।
वर्धमान वणिक तिहा रहे । विरराज हेत देशांतर बहै || भैंसा लादि अजोध्या गया । तहां महिष गल कुष्टी भया ।। ३४५१ ।
कीडा पढि सहें दुख घरपे पाप उदय तें ए फल बरी || कोई बालक मार देल । खेचें पूछ करें वे खेल || ३४५२ || इस दुख नई भईसा मुवा । बचवर्त्त कुमार देवता हुआ || रहे नरक में तिहां नारकी उन कुं दुख करें मार करे ।। ३४५३ ।। समभि कुबोध विचारि चित्त । महय्या महिष अजोध्या करि थित्त ॥ उंन लोग मोकु दिया दुख । अब लेहुं वयर तो पाउं सुख || ३४५४ |
उन छोडी कोई प्रसी बयार । सर्व कुंभ या रोग लिए वार || सगला दुखी या पुरलोक । अजोध्या में प्रगटचा था रोग ||३४५५||
द्रोण मेघ की विशल्या पुत्तरी । उसके चरणोदिक पीडा टरी || बहु विशल्या लक्षमण को नारि । या त होइ इनका उपगार ||३४५६।।
वृहा
पूरब भव सब ही सुणे भाज्या सब संदेह || जैसा कर्म कोई करें, तैसी गति पावेह || ३४५७।।
इति श्री पद्मपुराणे बिसल्या पूर्व भवांतर विधानक ५६ बां विधामक
चौप
हनुमान प्रांगद को अयोध्या भेजना
सुभ्यां रामचन्द्र पर जाई । हणुमंत अंगद जोध्या पठाइ ॥ भामंडल कू दीया साथ विरियांन लागी इको जात ॥ ३४५८ ।।