________________
मुनि समाचन्द एवं उनका पद्मपुराण
३१६
लक्षमण पुण्यवंत अति बली । विसल्या नारि सर्वगुण मिली । मैं विद्या असी प्रसकस्ति । मोकू जाणे सर्व जगस ।।३४७३॥ भद्र ने र: विधः दई । यहां प्रापा ।। बालि मुनीश्वर गिरि केलास । वा समये असक्ति दिया तास ।।३४७४।। मोकू कोई सके न टारि । जो मिल जल करे संसार ।। विशल्या पूरब भव तप करें । ऐसी रिध उस सपतै फर ।।३४७५।। प्रापत सुरखी विसल्या नारि | अगले भव का लक्षमण भरतार ।।
मैं भागी लक्षमण तजि देह । पुन्य बराबर अवर न एह ॥३७६।। विसल्या द्वारा मूर्या दूर करना
बिसल्या प्राइ लक्षमण के पास । केसर चन्दन लई सुवास ।। ममचन्द्र कू किया नमस्कार । लक्षमण तशी की बह सार ।।३४७७।। कन्यां सहस्र विसल्या साथ । सब मिल गावं जस रघुनाथ ।।
ताल मृदग बजावं कीण । गावं सकल नारि प्रवीण ॥३४७८।। लक्ष्मण का होश में माना
लक्षमण तव उठे अ'गराइ । मुख ते सुमरे श्री जिनराइ ।। बोले लक्षमण रावरण कहाँ । मार मार सबद मुख ते भण्या ।।३४७६।। रामचन्द्र समझाई बात 1 असक्त बाण लग्या तुम गात ॥ विसल्या मेघद्रवरण को धिया। प्रसक्त बाण इने दूर किया ।।३४५०।। गाए अनंत बधाये घणे । मूर्या तणे सब दुखरण हणे ।। घेत्या सब सेना के लोग । मूल्या तब परजा का सोग ॥३४८१।।
वाईष परिषह उन सहे, पंडी प्यार कषाय ।। असुभ करम सब दारि करि, भया नरायन राय ॥३४५२।। इति भी पापुराणे विसल्या मागमनं विमानक
६० मा विधानक
सबल को मंत्रियों द्वारा समझापा
रावण सुनि लक्षमण उपचार | किये सचेत विसल्या नार ॥ सकती बाण से हवा असफति । पुन्यवंत कुकछु न लगत ॥३४८३।।