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भूमि सभावंद एवं उनका पमपुराण
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हमारे कुल को लाग गाल 1 बोल नहीं बबन संभाल ।। सीता कु दूजा कहे भरतार । नगै कलंक तिहुँ लोक मझारि ॥३४१७॥ रामचंद्र जो ढील न करें। रावण फू हम परलय करें। लक्षमस भावमंडल सू कहै । दूत कु कछु दोष न लहै ॥३४६८।। रावण के बचन कहै इस कौर । याकू कडू न लाये खोडि । सिंह कोप हस्ती परि करें । मुखक परि कछु काज न परं ॥३४६६॥ इह बसीठ संदर सामान । ता परि कोप स्मंध क्या नान ।। इतनू कहि मार क्या पाप ! जोग्या नीतं समझ पाप ||३५००।। बलि वृद्ध विप्र तापसी । जोगी जती षुद्र मानसी ।। पशु भाथित पंषी अस्तरी । इन मारि भुगतं गति बुरी ।। ३५.१।। दुत मार का लाग दोष । सकल ही जीव दया को पोष ॥ जिहां दया तोहां परम । अदया जाणहु पाप का ममं ।।३५०२५॥ भावमंडल का घट गया क्रोध । लक्षमण नै दीया प्रतिबोध ।। सामंत दूत फिरि बोले बयन ! समझो राम ज्यु पावो चैन ।।३५.०३॥ तीन सहस्त्र विद्याधर सुता । व्याही सकल सुख की लता || जो विद्या तुम चाहो राम । मानु नगर भलेरा गाम ॥३५०४।। पुहपक विमान छत्र सुखपाल । हार्थी घोडे मोती लाल ।।
प्रर्द्ध राज लंका का लेहु । सीता का हट छाडि देड्ड ।। ३५.०५।। राम का प्रत्युत्तर
तब श्री रामचंद्र हम कहैं । अरे मूढ तू विवेक न लहै । रावण के कोई मंत्री नाहि । भली बुधि समझावै ताहि ।।३५७६।। नारी देकर मुमतो राज । ते अपणो बिगाडे काज ॥ वातै भलो जांणु प्रतीत । वन में रह प्रासम सुप्रीत ॥३५७७।। फिर पयादा वन फल खाइ । वा सम सुखी अवर न कहवाइ । श्री जिन जी लगावं ध्यान । राखं सदा पातम ग्यांन ॥३५०८।।
दूहा
राज काज घीया तो, भुगतं सब विष सुख । घिय जनम वा पुरुष को, कुल है लगावै दोष ।।३५०९।। धक्का दीया दूत को, दिपा सभा ते काढि ।। वचन न बोल समझ फरि, तातै व्याप गाडि ।।३५१०|