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मुनि सभांचंच एवं उनका पपपुराण
रावण विनवे मांगु यही । करू तपस्या जिण पद मही ।। छोडु सकल राज का मोह । पग बंधन है माया लोग ॥५५४॥ पुत्र कसिक न संगी कोइ । संपय तरणां विछोहा हो। ऐसा ये संसार सरूप । नटवत भेष करै बहु रूप ।।५५५।। जौनि फिरचौ चौरासी लाख । समकित की परतीत न साख ।। तो इह भ्रम्यो सकल जग बीच । कबहूं उत्तम कचहूं नीच ।।५५६।। मनमें कबहं नायो सांच | विषय किये भर इंद्री पांच ॥ इक इंदो सुख भुगतरण हार 1 ते भवमें दुख सहँ अपार ।।५५७।। पांच इंद्री विषय संयुक्त । सेवत पामें दुख बहुत ॥
पांच चोर काया में रहे । ए जीतें तब सिव सुख लहै ॥५५८।। भरणेन्द्र द्वारा शिक्षा
तब बहुरि वोले घरणेन्द्र । तुम राजा पृथ्वी के चन्द्र । तुम बिन दुख पावेंगे लोग । चौथे पाश्रम लीजो जोग ॥५५६।। मैं पाया म तेरे पास । मांगि सिन ज्यौ पूरू पास ॥ दिन को ज्यों धिमकै बीजली । वरवं मेह पुरै मन रली ॥५६॥ देव सरण जे भेटे माय । ये दोन्यु निरफल नहीं जाय ॥ रावण जपं सुणि धरणेन्द्र । देह देव जो तुझ उर विन्द ।।५६१।। सक्ति वारण रावण प्रति दिया। ताका भेद गुण समझाइया ।। जाके हिये लगै यह पारण । ताके गुण का इहै परमारण ।।५६२।। एकरण ऊपर होइ जाय । बह जीव नहीं विसही उपाय | धरणेन्द्र देव गया पाताल । रावण मन में भयो विकराल ।।५६३॥ एक मास परवत पर राधा । चित में घरम जिवंसुर गहा ॥ समझा परियण सब माय । मंत्री कहे ग्यांन समझाय ॥१६४।। प्रब फिर चलो करो निज राज । तुभ बिन विग. सगरे काज ॥ ज्यारि दान तुम दीज्यो नित्त । पूजा करि पालो समकित ।।१६।। गंयण पहंतो लंक नरेस | कर राज सुख पाय देस ।। बालि जती लहि केवल ग्यांन । परम प्रकास गए निरवाण ।।५६६।६ इति श्री पप पुराणे बालि निर्वाण विषानकं ।।