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पद्मपुराण
सुवर्ग भारी अमृत नीर । जीमैं राम लक्ष्मण दोउं वीर ।। गीना ने नीयो साहार ! दई मुख सोधि वह पान संवार ।।२५८२।। अरगजा वाल्या बास गंभीर । वात उपजे सुख सरीर ।। लक्ष्माण गम बस गिर चले । वनक्रीडा देखत मन बस ॥२५८३।। चैत्यालय देग्न बहु भाइ । रतन विंच बीमों जिनराम || कहीं कंचन के देहुरे । कहीं पाषाण लगाये खरे ॥२५८ ।। कर प्रतिष्टा पूजा दान | सकल भूपती मानं प्राण ।। रामचंद्र लक्ष्मण सों कह । वर्ण नहीं जो हम एहां रहें ।।२५८५।। लोग नारे हमरी सब सेव । भरथ सीव सौ रहिये छेच ।। कैसे रहिये भरण की ठौर । रहैं जहां वहां लष न प्रौर ।।२५८६ ।
खतवादी श्री रामचंद्र, लक्षमण वित्त विवेक ।। बंगगिरि तजि प्राग चले, धारि घरम की टेक ।।२५८७।।
चौपई राम का प्रागे गमन
राम गिरि शनि वनमारग चले । बह प्रकार तरु देखे भले ।। अगले वन सब देखे सघन । मनुष्य न दीस मारिंग कठिन ।।२५८८ ।। निस बान र तिहां एक समान । सघन वृक्ष दीस तिहां भान ।। राारे दिन चलिया कोस एक । गिरि फंदरा में रह्या टेक ॥२५८६ ।। वनफल बोरस करें माहार । पहुँचे करण रेवा तट पार ।। उत्तम वृक्ष लागे फल फूल । सीतल पवन जाय दुख भूल २५६।।
विहां जम्य रामचंदर रहैं । अनफल मारिण अन्य न चहैं ।। बन जीवन काल
बासरण मोदा तिहां संवार । रसवंती करै सीता तिरा बार ।। २५६१।। पानन की पातल लें यणाइ । सुरही धेनु का दुग्ध मंगाइ ।। नारिकेल के तंदुल अनुप । दाडिम दास मुख स्वरूप ।।२५६२।।
चारोली पिस्ता बिदाम । ए बसता खाई कर पाराम ।। राम द्वारा चारण मुनियों को प्रहार बेना
चारण मुमि सीता दृष्टि देखि । मास उपवासी दिगंबर मेष ॥२५६३।। रामचंद्र ने सीता कहे । उठो वेगि पडगाहो गहैं ।। दोन मुनिवर ने देय प्रहार । रामचंद्र उठियो तिणवार ॥२५६४।।