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पद्मपुराण
गिरमा भूमि सांस लब थक्या । रामचंद्र रावण सों जुट ।। बापत्तक बाण जू छुट । रामचंद्र रावण सौं जुटे ।। घणी बेर लग कीया जुध । रावण नै मारि किये बेसुध ॥१३॥ गज के रथ सू दीया हारि । सिंघों के रथ चढे संभारि ।। उहाँ त फिरि रावण दिए डारि । मारि गदा तिहां तिह बार ।। ३३८१५॥ कोई न घाव रावण के फुहा 1 रामचंद्र तय ग्रंसा कहा ।। अरे रावण तेरी उमर है घणी । तू सटा है अबकी भणी ।। ३३ ।। संका जाइ पाश्रम गहों पर बयर रक्षा को हो । तेरे टूफ टूक जब करूं । तोकू से जम मंदिर पर्स ॥३३८३॥ रावण सब सेन्यां ले साथ । लंका पहुंच्या हरषित गात ।। मैं सक्षमणां मारा है सही । मोकू कुछ पिता है नहीं ।।३३८४।। जे रामचंद्र मुझसौं फिर लई । यात का कारिज ना सदै । भ्रात पुत्र की चिन्ता चित्त । देखो यह संसार प्रनित ॥३३८५।। दुख सुख जीव तर्ण संगि लग्या । असा ग्यान उणसम जग्या । कर सोच ग्यान घरि चित । होणी टर न अंसी स्थिति ||:३८६॥
मडिल्ल लक्षमण पडया प्रचेत राम व्याफुन घरण ॥ रावण भए नचित क्योंकि दुरजन हणां ॥ असा प्रवर न कोई तो हाथ रावण मर। देखो कर्म प्रभाव कहा ते कहा कर 1 ३३८७।। इति श्री पद्मपुराणे संग्राम विधान ५७ वां विधानक
चौपाई राम विलाप
रामचंद्र लक्षमण कपास । देख्या मृतक कह न सांस ।। रघुपति देवरि खाइ पछाड । रोवं पोटै बारंबार १३३८८।। हाय भाइ इम कसी बरणी 1 मंत्री वात कहैं ये घरणी ।। जब हम छोडि अजोध्या चले । सब परिवार कह मिले ।।३३८६।। लक्ष्मण कु नीके राखियो । मनोहार वाणी भाखियो । किस भांति नै चलावो चित्त । पक्मण कोज्यो भक्तं हिस ।।३३१०।।