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पद्मपुरास
चसै रुधिर रावण के मुख्य । जटा पंषी दीयो अति दुःख ।। रिस करि राबण पंषी गहा । तोड़ी पंस छेदन सुख लहा १२०३५॥
नाखि दियो पड्यो घरती माय । अधमुवा सुसं तिए ठाय ॥ रावण द्वारा खेद करता
सीता देख करत बिल्लाप । रावण खुणे सीस निज माप ।।२७३६॥ अनंतदीरज स्वामी प्ररहंत । तिरापै लियो सील इणभंत 14 कवण कुबुषि उपजी मोचित । परनारी सो बगाया हित ।।२७ ३७६१ पतिनता है सीता सती । इसके मन में पाप न रती ।। छोष्टि राज में दिया सेहं । उपनु बराम विचार मेव ॥२७३८।। याने ले लंका में जाउं । बिन बांछा मैं संग न करूं । इसकी इच्छा होवे जब । कल संम मिलाप में तब ।।२७३६॥ माही तो वह पुत्री समान । इस विचार पहुतो निज थान ।। लक्षमण रामचंद्र सो काई । तुम क्यों नाए वहाँ कुण रहै ।। २७४०।।
मैं तो सब दुरजन संहार । खरदूषमा को मार्यो डार । राम का विलाप
रामचंद्र तब बोले बैन । सिंघनाद सुरिण भया कुचन ॥२७४१११ रामचंद्र फिर पाये तिहां । सीता दृष्टि पही नहीं वहां ।। रसाय पशर धरती पर गिरे । सीतां सीता मुख ते करें ।।२७४२॥ फाटे वस्त्र सिर केस खेसोट । गह्यो धनुष किस पर करें चोट ।। वन बेहरु सरवर प्र वृक्ष । कहीं न देसी सरता प्रतष्प ।।२७४३।। जदर पंखी मारप में गया । सास उसास ते बाहै मया ।। पंच नाम संभलाए कान । जहा पंधी का चया प्रांन ॥२७४४॥ सीता तुमते रही कठि । वह तो नाद सबद था झठि ।। हम कु तुम छहा देहो दु ख । वठि प्रावो देखो तुम मुख ॥२७४५|| व्याकुस भया रघुपति का मन । स्थन करत तत्र भ्रमिमो वन ।। दोइ भाई तीजी सीता संग । भयो विछीह जीव का अंग ॥२७४६।। हेर्या बन हेरी सब खोह । रामचंद्र ने व्याप्पा मोह ।। बहुत वियोग मया तिरा बार 1 उठनहर सब खायं पार ॥२७४७]
जैसा दुख रघु नै भया, कहाँ लग कर बाग : चित भरम्था त्रिभुवन घरणी, मल्या सकस साल ॥२७४८।।