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मुनि समाचन्द एवं उनका पयपुराण
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पंचाग्नि साचं तप करें । कबल जोग सखा ही धरै॥ दोऊ हाथ उन ऊंचा किये । नख बढाए मृगछाला लिये ।।३२८६।। बड़ी जटा उरग्यांन मिध्यात । भये देव दोऊ वे भात ।। दक्षिण उर विजयाद्धं मेर । अरंजय नगर वहु फेर ॥३२८७॥ वहन कुमार अस्वनी प्रस्तरी । वे दोउं देवां स्थिति घरी ।। कंपिला सकार दूजा असो करा । अरवनी राणी गर्भ अवतरा ।। ३२८८।। रथनूपुर इन्द्र के पास | करता सेवा प्राधिक उल्हास ।। इन्द्र कपिल द्विज नृप के संग । दुरजन दल को करता मंग ।।३२८६।। इनके सनमुख कोई न धपं । ए प्रधान रावण के तप ॥ इन्द्र कपिल वे स्वर्ग में गये । वहां से चयरि सूर्यभट भए ।।३२६७।। सुख माही कीने बहु भोग । भये दिगम्बर साधो जोग ।। वाईस सह परीमह गात । दया लाख चउरासौं जात ।।३२६१।। तेरह विध चारित्र पालें । काया तजि सुर भया विसाल ।। उहाँ त चव किंषदपुर भाइ । सूरजरज के नल नील कहाद ।।३२६२।। पूरक भव के ए सनमंध । तातं लिया वर प्रतिबंध ।। ग्यांनी वयर कर नहीं कोई । कद्र परिणाम खोटी गति होय ॥३२६३।। रण अन बैर दल नहीं वाहू । जनम जनम बहुत दुख सह ॥ जे राख दया सुभ भाव ! उनका तीन लोक में नाम ।। ३२६४॥ सर्वसेती उत्तम क्षमा करें। खोटे बंधन जिय में धरै ।। जित जावे तित प्रादर होइ। उसकी कीत्ति करें सब कोइ ।।३२६५॥
सोरठा पूरख भव, प्रतिबंध, भुगत्या बिन कैसें टलै ॥
दही कर्म सनबंध, या माही एको तिल न सरे ।।३२६६।। इति श्री परापुराणे हस्त प्रहस्त नल नील पूर्व भव वर्णनम विधान
५४ वां विधानक
चौपई दूसरे दिन का पुद्ध
रावण सुणि सेनापति बात । उमा क्रोष सुभटां के गात ।। दो धा सेन्यां उठी परभात । करि सनोन सुमरे जिण गात ।।३२६७।।