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पद्मपुराण
अपने अपने गेह मंझार । कर प्रालिंगन सब नर नारि ।। पुत्र पौत्रादि सकल परिवार । लपट कंठ प्र. कर पुकार ।।३२४७॥ पोषी देह स्वामी के काज । अब जो रहै तो पूरी लाज। जे जीवांगा तो मिलि हैं प्राय । उत्तम क्षमा कहि निकसे जाय ।।३२४८॥ रो कदव सब बारंबार । उन कब्वाप्पा मोहि अपार ।। न कछु जनम सेवग का जान । लजि कुटुंब देवं निज प्रान |1३२४६।। कर बीनती रोवै प्रस्तरी । जब तुम जीत फिरो तिण घरी ।। जब हम तुमत हुनै मिलाप । तुम मुझे होह संताप' ।। ३२५०।। अपणांसजो तिरा बार । तुम बिन सगलो जगत उजाड ।। कोई नहीं विधाही नारि 1 ते तेही समझ सुख की कार ।।३२५१।। मोह फंद में बांधी दनी । अंसी कठिन सबसौं वनी ।। कोई प्राभरणं फरि भसमांन । सुथरे बागे पहरे भनि ।।३२५२।। सब हीं में बांधे हथियार । अपरगा प्रपणा रूप संचार ।। पूज्या पहलां देव जिर्णद । सुरवीर मन फर ब्रानंद ।।३२५३।। धन्य दिवस सही है प्राज । साध स्वामि धरम का काज ॥ कोई कहे कित सीता हरे । ता कारण इतने बल जुडे ।।३२५४।। कुण कुरा मरि हैं रण के मांझ । राबरण मांही प्रषरम की झांझ ॥ सीता को ओ देई पठाइ । तो कां जुध होता इण बार ॥३२५५॥ प्रब हम जाई दिखा लेहु । छोडि सब संसारनि एहु । कातर कई लोग सब कोइ । ए विचार उनके मन होइ ।।३२५६।। रावण के बाजै नीसान । निकले सकस लोग तजि थान ।। हस्त प्रहस्त भगाऊ चले । लिगां के संग सुभट बह मिले ॥३२५७।। मारीच स्यंध जान भूपती । स्वयंभू प्रथोत्तम उजल मती ।। पृथ्वी वल चंद्राम अवर चंद्रसुक । नरपति बहुत प्रबर असुक ॥३२५८।। कुभकर्ण अन इन्द्रजीत । मेघनाद अति महा पुनीत ।। अढाई कोडि कदर प्रसवार । सोमै जिसा देव उणिहार ॥३२५६।। रतनवा पर मालवान । रावण चाल्यो गज पलाए । केई भूमिर केई विमान । छाई किरण जाणु लोपें प्रांण ।।३२६०।। होबै कोलाहल सबद न सुरग। उडो घल संघियारो बणे ॥ पचास लाख रावण की डोर । हस्ती मात उभ पौर ।।३२६१।।