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पद्मपुराण
इति श्री परपुरारणे सोता वियोग विधामक
४० वां विधानक
चौपई रावण की सीता के समक्ष गर्वोक्ति
रतनजटी कांपर्धत विसावण देखे दक्षिसनको चित्त ।। मंद चाल से चले विमांण । रांधण खग्या काम का बारण ।।२७८८।। सीता प्रति बोले प्राधीन । मुख दिखावो मोकू परवीन ।। जे मोकू दर्शन नहीं देह । मेरे प्रार। छुटेंगे अबेह ।।२७८६।। तुम कारण प्रारण मम जांहि । इह तो पाप सगलो तुम थाय ।। तपसी कहा राम लक्षमणा । तिनका दुल मानै मत घरमा ।।२७६०।। कहां अजोध्या तिनका धरणी । वनमें रहूं तपसी रूप खुध्या घशी ।। मैं तो नरपति सक समान । इछो सो पावो मन मांहि ॥२७६१।। सर्व प्रश्बई पर है तुम राज । करो भोग मनबंछित काज ।। जे तू मेरा कोरा सिर में देइ । तो मै मनतें तजू सनेह ॥२७६२।। सोलह सहस्र राणिया मझार । तुझे पटराणी करू सिरदार 11 तुमकू' फेर दिखाउं सुमेर । देखो यह सागर यह फेर ॥२७६३।।
एह सुख देखो छंडो सोग । राजरिष का भगतो भोग ।। सोता का करारा उत्तर
गीता कहै सुणरे पापीष्ट । जे तू खोये खोटी द्रष्ट ।।२७६४।। जे तू फरसे मेरी देह । ह्यू' सराफ तू होगा बेह ।। परनारी भगत ने मूढ । पड़े नरक दुख सहै अटूट ।।२७६५॥ मेरे रामचंद्र का ध्यान । उन दिन तसक्षण तबो परांण ।। राम बिना जितनां नर और । मेरै तात भ्रात की ठौर ।।२७६६।। हस्त प्रहस्त खरदूषण का लोग । चालकेत महाखेत के मन सोग ।। गिरवा नरम भूपत्ति मिले प्राइ । खरदूषण तिहां मुझ राई ।।२७६७.। रावण निकट प्रायक मिले । खरदूषण की सुणी पर जले ।।
गुण ग्रीवाहर रछ बाग । तिहां फल फूल रहे थे लाग १३२७६८।। मशोक वाटिका में सीता को रखमा
मसोष वृक्ष तले सीता राखि । चन्द्रनखा बिनय सहु सालि ।। सरदूषण संबूक को मारि । हमें पताल से दिया निकारि २७६६।।