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पमपुराण
तुम राजिन लक्ष्मण परधान । तुम प्रभु हम छत्र उठावन वान ।।
पत्र घन हारेंगा चमर । तुम पर बैटि बांध कमरः ॥२१८४१॥ संकषी का प्रागमन
पाई पाई कैकई माद । राम लसण उटि लागे पांय ।। रुदन कर समझा बाप्त | तुम बिन दुख पायां दिन रात ।।२१८५'। प्रजोध्या चालि राज तुम करौं । मेरी चूफ न जित मैं धरौ ।। लघु भाई सेवंगा चरण । तुम त्रिभुवन के तारण तारण ।।२१८६।। रामचंद्र बोले सुण मात । हमकुवनवास दिया है तात ।। पिता भाग्या कि.म कोने मंग । हम तपसी भेष है सुख भग ।।२१८७।। भरत सत्र न हम दीया राज जि सारी सिकार ॥ तुम सब बिदा अजोध्या किया । प्रापण उठि वन मारग लिया ।२१८८।। विद्युत मूनी प्रजोध्या बास । भरत सुनै जिन मत का पास ।। अरहनाथ के मंदिर जा६ । तिहू काल जिन पून रचाइ ।।२१८६।।
धरम मार्ग का कोजे काज । प्रजा सुखी भरथ के राज ।। राम का उज्जयिनी जाना
मालव देस जीणी नयर । वन उपवन को देखत सर ।। २१६०।। गाय , मैंस चरं तिहां घणी । खेती हरियल सोभा बसी । मनुष्य न दीस किणही ठौर । नगर सोमै रमणीक सु और ।।२१६१।। लक्ष्मण राम प्रचंभा करें । इहां का लोक कहां हैं दुरै ।। देखो पन्वत ऊपर जाय । सकल बात भाषो तृम प्राय ।।२१६२।। लक्ष्मण जाय परवत पाया । देख देहुरो प्रतः सूख बदया ।। नमस्कार करि तक गरि चढयो । मनुष्य एक तहां दृष्टि पडयो ।।२१६६।। ताहि देख मन सोच मांहि । ताको भेद न पाऊं जाहि ।। के इह मनुष्य मे उभी ठूठ । कैसे बिन समझ्या कई झूठ ।।२१६४।। इह कू देखू अपने नयन । तब में कहूं राम सौ बयन ।। उतर रूख को वालिंग चल्या । पंडा मांहि बह पावत मिल्य। ।।२१६५।। लषी देह कूबड़ी षेह । फाटे बसतर लागे छह ।। नंगे पांव दुषित प्रति रूप । ताहि साथ से पाए भूप ।।२१६६।। रामचंद्र सीतां ढिग मागि । बटोही में जाण्यों देव समारिण ॥ रहे यह इन्द्र अथवा धरणेन्द्र । के विद्याधर सूरज चन्द्र ।।२१६७।।