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मुनि सभाचंच एवं उनका पञ्चपुराण
तब द्विज मनमें अचरज घर । इहां तो थे वन बेहड घने ।। किण प्रकार इहां हुवा नगर । राति बी वाले वणीयो सगल ।।२३३६।। के छह सपने है परतक्ष । के ममता माया है को जक्ष || ऐसे सोच कर था वटा । मिन परिणहारी भरि सिर घना ।।२३३७॥ पूछ ताहि इ नगरी कोरण 1 काहै, परिणहारी रामपुर भौन ।।
पु न नगी हह माया करी ।।२३३८।। पौलीदार रनवाले घर । पापी दुष्ट नै परहा कर ।। धरमी हुये सो दरसा लहै 1 देखी माणस दूर रहैं ॥२३३६।। पूछ विप्र में किरण विघ बाऊं । पणिहारी कहै से श्री जिरण नामु ।।
मुरिण पै सुण्या धरम का भेद । ताते हुमा पाप का विछेद ।।२३४०11 धर्मोपदेश सुनना
चरित्र सर मनि पास जाइ। नमसकार करि लाग्या पाई ॥ सुरिण जिणधरम अणुवत लिया । धर्म लेस्या माहि चित दिया 1।२३४१।। राम लखश का दरसण पाद । कपिल विप्र ने लिया बुलाइ ।। बहुत विभव विन कुदई । मंनमें कछुवन पाणी नहीं ॥२३४२।।
दहा जैन घरम पाल सदा, दया कर बहु भाय ।।
नवनिधि पाव जगत में, बहुरि मुक्ति में जाय ।।२:४३|| इति श्री पगपुराणे कपिल जैनधर्म व्याख्यान श्रवण विधानक
२१ वां विधानक
चौपाई चातुर्मास के पश्चात् गमन
सुख में इहां बीतो चउमास । बहरि फिर निकले बनवास ।। विनायक पति जोड़े हाथ । नमस्कार करि नमायो मांथ ॥२३४४|| जै सेवा मुझ से भई हीन । षिमा कीज्यो विनाधीन ।। बिन उपदेश कियो इह काज । क्रिया करो सेवन परि प्राज ॥२३४५।। रामचंद्र लक्ष्मण का ईन । तेरा नगर में पायो चैन ॥ तं बहु कीनी सेया भगति । तेरा सुजस भया सब जगति ॥२२४६।। हम तुमबु सकुचाया भाय । तुम जस महिमा कहिय न जाय ॥ इनका मोह देव बहु किया। मोती हार मान कर दिया ।।२३४७।।