________________
२३२
एयपुरास
कुंडल दिया सिया कू प्राण । ताकी जोति रवि किरण समान ।। नगर छोर वन मारग गया। नग बसे थे ते घर रहा ॥२३४८।।
माया रूपी खिरी विभूत । लोग उदास भए तव बहुत ।। विजय वन में गमन
वन ही वन पारग कू चले । विजय हरि के वन में नीकले ।।२३४६ ।। पृथ्वीधर थे तहां भूपति । इंद्राणी राणी उचल मती ।। वनमाला जाकं पुसी । सप लक्षगा गुरण सोम खरी ॥२३५० । कन्या भई विवाहण जोग । निमित्तग्यांनी इम कमा नियोग ।। लक्ष्मण की पटराणी होइ । दसरथ दिक्षा लई या सोइ । २:५१॥ लक्ष्मण राम गये वनवास । भरत सधन करें विलास ।। लक्ष्मण कू अव पार्थ काही । कन्या व्याह दीजिये जिहां ।।२३५२।। सकल कूटन रहसि मन करें । कन्या बह सुख मन में धरै ।।
राजा सुची प्रजोध्या बात । दसरथ दिक्षा लई इण भांति ।।२३५३३। बनमाला का लक्ष्मण पर प्रासक्त होना
वनमाला कहै लक्षमण बिन और । मेरे पिता भ्रात को और ।। लक्षमण कूसुमर दिन रात । इण भव मेरे अन्य न बात !1२३५।। सांझ पडयां देवी की जात । वनमाला पाज्ञा लहितात ।। कहै कहूं फांसी ले मरूं । कंत बिना कैसे दिन भरू' ।।२३५५।। छांछि ऊतरणा तरु सू बांघि । गल में मेल्यो थाहै फाधि ।। लक्ष्मण ने भाई सुभ गंध । देखा गया ते सन बंध ।।२३३६॥ याहि देखि तरु हे छिप्या । वनमाला लक्षमण गुण जप्या : वनदेवी विनती कर । जे लक्षमण मोकू अव वरं ।।२३५७॥ तेरा मंढ चुणाउं देव । पूजा करू ब्रहत विध सेव ।। गल में चाहे फांसी लिया । इस भव मेरै लक्ष्मण हिया ।।२३५८ ।।
अगले जनम होई जियो मेल । अमें करें वह कन्या खेल ।। लक्ष्मण का प्रकट होना
तब प्रगटमा लक्षमणां कुमार । तू अपघात करं किम नागि ।।२३५६॥ मैं हूँ नक्षमन तु रख मन ठाव । न पताजं तो ग्घ द्विग प्राव ।। इतनी सुरिण कढणी लइ खोलि । ऊझल केरिक छोले बोल ||२०६०