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मुनि सभाचंद एवं उनका पद्मपुराण
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बोले बजकिरण भूपति । राजरिध छोड़ सब भती॥ धरम द्वार हमने तुम देहु । दंपति जाया निकाला लेहु ।।२२२८।। मैं निस्चे छोडूगा नाहि । राज भोग की ग्रंछा नाहिं ।। दून घर आया नप पासि । त्राक एन. निरंजन पामि ।।२२२६।। धाम द्वार की इच्छा ताहि । राज भोग की इच्छा नाहि ।। सिहोदर फिरिया भुपनि । सेना पड़ी सब धेरै धरती ।।२२३॥ पास पास सब दिया उजाडि । तबतं गाजे हैं मन छोडि ॥ सुरमीत मते मम प्राइया । इसकी खवर मैं अभी पाझ्या ॥२२३१॥ लागी अगनि जली पडी । बली टूट अंग परि पडी। हेम साकली रत्न सों जडी। रामचंद्र दीनी तिण घडी ॥२२३२॥ परदेशी गहुँतो निज ठाम । भया सुखी जगत में नाम ।। जहां ते चले असन निमत्त । दशांगपूर चरगाल करी थिति ।।२२३३।। चन्द्रप्रभ की पूजा करी । लक्ष्मण सुबोले तिरा घडी ।।
मन माहि सु सीघा लान । दिन सेती न्यू भोजन स्लाम ।।२२३४।। लक्षमण की बनकिरण से भेंट
सीतां त्रिषायती है घणी । दशांगपुर तिहां गाढ अति वणी ।। बटुंधां घेर रहै सामंत । लक्ष्मण ने जातां बरजंत ॥२२३५।। धका धूम करि भौतर गया । गढ की गौलि खडा जिम भया ।। बा किवाड अटल तिहां दगणे । सूर सुभट रखबाले घरखें ।।२२३६।। लक्ष्मण सूपूच तू कुएँ । विहां से किया तुमने गौण ।। वहेक हम पर देगी प्राय । अन्न हेत हम गढ़ में जात 1॥२२३७॥ पोले दीनी खिडकी खोलि । वनकिरण यादर सों बोलि ।। तुम किहां ते आवरण किया । लक्षमण को मादर प्रति दिया ।।२२३८।। ओले लक्षमण सुनौ मरेस । अन इछा याये तुम देस ।। पंचामृत सू थाल भराद । लक्षमण मागे धरा मंगाय ।।२२३६।। तब बोले लक्षमण कुमार । भाई भावज हे जिण द्वार ।। उन जीम्या बिन में किम खाउं । कहो तो तिस पास ले जाउं ।।२२४०।। भोजन अन्न दियो भरि थाल । लक्षमण नै बूझे भूपाल । लक्षमण ले पायो जिण धाम । जिहां बंठा श्री सीताराम ॥२२४१।। असी पाणी उत्तम वस्तु । राम कहैं लक्ष्मण ने हस्त ।। फासु जीमण प्राण्यां भला । बहुत मुगंध ता माहि भिल्या ।।२२४२।।