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मुनि सभाचंच एवं उनका पद्मपुराण
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राजा घाइपया तिस बार । बोल सब्द मार ही मार ॥ कोई निझट प्राई नहीं सके । जा पकड़े ता मारै बकं ॥२२५७।। तोडया रथ प्रावन मासांहा : ८.र! हे रसा : इल तो कोई हितू हमार । सब दुर्जन कीने महार ॥२२५८।। सिहोदर के धाए सुभट्ट | गदा खडग से किया संघट्ट ।। गोला सर वर्षे ज्यौं मेह । निर्वत के लगे न देह ।।२२५६ ।। बज्रावर्त्त लक्षमण संभार | सगला दिया मारि कर छार ।। मारे खडग विजली मी प्रात्त । दारुण जुध भया बहु मालि ।।२२६७ ।। देम्बे लोग अचंभ होइ । इन्द्र कहे धरणेन्द्र है कोई ॥
या विद्याधर के इस देव । सिहोदर सोचं मन एव ।।२२६१।। सिंहोवर को लक्ष्मण द्वारा बापना
लक्ष्मण तब दुपट्टारोह । सिहोदर में बांच्या दोध ।। मार लात धमुके घणे । रांपयां उसकी विनती भणे ।।२२६२।। मोहि भीख दीजिये भरतार । तू दुजा मेरै करतार । लक्ष्मण कहैं रघु पासि ले जानु । जे वे करें दया का भाव ।।२२६३।। नो मैं छोड़ पा को न्याइ । ल्याये रामचन्द्र की ठां ॥ चंद्रप्रभु की पूजा करी । रामतरपी प्रस्तुति चित घरी ॥२२६४॥ वनकरण सेती रघु कहैं । मागि वेग जो इच्छा बह ।।। बजकरण फहै मांग रह 1 सिहोदर ने छोद्धि तू देह ॥ २२६५।।
राज्य का बटवारा
धन्य घन्म भासन लोग । अभयदान का दीया जोग ।। सिंहोदर कु दसांगपुर दिया । उजेपी का राज वनकरण किया ||२२६६ ।। बहुत राय दरसन कू माय । तीनस कन्या भेट क्यों ल्याइ ।। रामचंद्र लक्षमण कहैं बात । हम परदेसी फिरें भ्रमात ।।२२६७।। वन में फिर तहां घर नाहि । कैसे इनस्यों करें विवाह ।। वारह बरस फिरी बहु देस । ता पाछै समझिये नरेस ।।२२६८।। राजा सकल चीनती करें । अब ए कन्या किरण ने रे ।। तुमको प्राणी ए घरि भाव । कसे दीजे और छांव ॥२२६६ ।। कान्या सकल रही मुरझाय । जैसे फूलमाल कुम्हलाह ।। रामचन्द्र जिरण थानक गए । प्राधी रात विदेसी भए ॥२२७७।।