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पप्रपुरा
करि महार मन रहसे घरणे । बज्रकिरगा की प्रस्तुति भरणे 11 धन्य यह सम्यक दृष्टि भूप । अंसा भोजन दिया अनूप ॥२२४३॥ सिंहोदर वाक् देहे दुःख । किस विष हो या सुख ।
हम तो खाया इसका धान | या का कारज कर प्रमान ॥२२४४।। अधमरण का सिंहोवर के पास जाना
लक्षमण भेज्या सिहोदर पास । पुण्य जीव का किम करें नाम ।। वावर्त धनुष ले हाथ । तरकस बांधि खडग ले साथ ।।२२४५।। राय द्वार से उभा भया । पोलिय मटक्या जांगण न दीया ।। कहै किमाई हूं भरत का दूत । कही सिहोदर स्यों इह सूत ।।२२४६।। राजा ने तब लिया बोलाइ । भरथ संदेसा कह्मा समझाइ ।। वालोचन कहा किरी बिगाड़ । ते उसका दिया देस उजाड ।।२२४॥ यह तो सेव श्री मिनराव । तं वाक् भयवंता आज ।। वा को वेगि छोडि तू देई । इह अपलोक मती तू लेह ।।२२४०।। बोले राजा सुरिण हो दूत | अंसा कहा भतं रजदून ।। पापणं देस मनावो प्राण । ता पाई हूं राखस्यौं कारण १२२४६।। बजलोचन वाव मुझ धान । बहुरि भंग कर मम मान ।। बाकू भला लगाऊं हाथ । अंसी करे न काहू साथ ॥ २२५०1 जो याकू मैं अब छोडि । तो बिगड़ें और इ या होड ।। बोले लश्नमा सुणू नरेस । या त छोडि मानि उपदेस । २२५११ गजा कहे सुगा रे तू भूतु । दा मंग तु का हुवं प्रारूह ।।
जसा हुबै उसका सूल । असा तंग हहै मन ।।२२५२५। सक्षमण और सिहोदर के मध्य झगडा
लक्षमण कह पाया तुझ मरसा । मान नहीं भरथ की मरण ।। कोप्यो भूप आदि सब सभा । क्रोध सकल ही के मन षुधा ।।२२५३॥ कई गदा गही तरकार । समला प्रावध लिये संभार । लक्षमण कहै ढील क्यों करी । तृम में बल है तो वेगा लहो ।॥२:५४।। ध्याय परे सब ही सामंत । लक्षमण कर प्राण का अंत ।। जाहि गहै ता पटक मूमि । मारै मुठी लात घुस ।।२२५५।। मारि थपेड करै संहार । सगली सेन्या दीनी मार ।। राजा देखि प्रचंभा करै । एक पुरुष भंसा बन धरै ।।२२५६।