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पगपुरगरण
पवनंजय कुमर धरम की देह । में पापणी किय होइ सनेह ।। के में जिन गुण निन्दा करी । जिनवाणी नहीं निश्चय धरी ।।११२४।। के गुरु का राख्या नहीं मान । के मनपर नहीं सुग्यां पुराण ।। के किस ही को किया बिछोह । के मिष्या सों ल्याया मोह ।।११२५।। # भोजन उठि खाया रति । परनिंदा कीनी बहु भाति ।। तो इह मुझमे भया वियोग । असुभ उबंय बाधा सोग ।।११२६।। ऐसे कहि अंजनी पछिताहि । सखी सहेली कह समझाय || मनमें पित करों मति परिण : करम उदै ते ऐसी पशी ।।
१७ अंजनी के है पवन का ध्यान । अब इहो कथा चली है न ।। रतन होप राजा के साथ रावण का युद्ध
वरण है रतनदीप का राय । रावण को नहीं माणे दाय ॥११२८॥ रावण ने तब भेज्या दूत । वरण मूप पं जाह पाहत ॥ वासु वातां कई वसीठ । रावण ने तें दीनी पीठ ।।११२६।। जण राचा जीते सब देस । तीन खंड के कर आदेश ।। इन्द्र बंश्रयण जीतिया कुबेर । जम नलकूया पकरचा घेर ॥११३०।। तु समुद्र में छिपकरि रह्या । अब तु मांनि हमारा कह्या ।। रावण सेव करो कर जोडि । प्राग्या मांनि त माय बहुरि ।।११३१॥ तुज वह देस परगने देह । प्रादर सहित नगर में लेह ॥ इतनी सुप कर कोप्या भूप । रक्त नयन भय दाई रूप ॥११३२।। बोल राजा सुण रे दूत । रावण ने सराहित बहुत ।। जे वह बहुत कहा सूर । हममों जुष करो भर पूर ।।११३३१ धना देइ पुर बाहर किया । दुत सरणा मन विस्मय भया ।। दूत रावण पं प्राया फेर। कही सकल उन उत नीचेर ।।११३४।। सुरगत पचम तक उठया रिसाद । सूर सुभद सब लिये गुलाब ।। रतनदीप कू घेरा बाय । सुनत बरण तब निकस्था पाह॥११३५॥ राजा पीरी दो सुस चले । ना जोडि सूरमा मिले ।। दुहूंघा लई बडे सामस । पंदल सुपंदल झुझत ।।११३६।। मैंगल सो मैंगल बह भिडे । रथ सों रथ टूटि गिर पडे 11 रावण को सेन्यां अहटाइ । बांधि लिया पडद्षण राय ॥११३७ रावण का मन दुचिन्ता भया । मत्री सेसी मता तिन किया ।। मंत्री जन दीया उपदेश । खुलाए नगर के भूप नरेस ११३८।।