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मुनि सभाचंद एवं उनका पापुराण
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बेग नगर ते देहु निकार । उनको नोक बड़ी कुमार ।। बसंतमाला राजा पं गई। करि डंडोत चरण को नई ।।१२२२।। अजनी बहोत लाडली सुता। वागों मोह बहुत तुम हुता ।। निसदिन जीव सम गिरणते ताहि । बाका वचन डारते नाहि ।।१२२३।। अंसी अति प्यारी वो धिया : केतुमती बाकी दुग्न दिया 11 मानसरोवर पवनंजय गया । चकवी सदन देखि भई दया ।।१२२४।। महाते प्राय किया संजोग । च्यार पहर निस भुगते भोग 11 करी खोज तब कीजों क्रोध । नीको न्याय समझो नृप बोध ॥१२२५।। केसमती इह दीनी काहि । याको अव बनी अति गादि ।। पिता गेह नहीं पामें ठाह । हारे थके विरछ की छाह ।।१२२६।। सब मंत्री समझाब ग्मान । बोई मित्त नहीं प्रान पान ।।
बसंतमाला ऊपर रिस करी । तू विभचारिणी है अति परी ॥१२२० । सब ओर से तिरष्कृत
ए सब भई तुझ ही तें पोडि । तो कौं दुख दीजे ते थोडि ॥ हेला ईट पत्थर की मार । नगर माहिं तें दई निकारि ।।१२२८ः। जिहां जिहां तं भाई वंघ । घरि घरि फिरी जाणि सनबंध ।। कोई वारनु न देषन देह । द्वार हो ते पाथर लेय ||१२२६।। सब कुटज को छोडी प्रास । दोन्यु नारि लिया वनवास ।। हस्ती सिंह चीते तहां फिरें । महा भयानक वन में उ ।।१२३२ ।। गे पीट कर पूकार । त्या देही घाब विकार ॥ भूख पियास सतायं देह । कपडा फार्ट लाग पेह ।।१२३१॥ प्रासौं चले इस्त्र व्याप्या धरणां । ऐसा जोग करम का वण्यां ॥ पवनंजय मोसों अस करी । विछोहा समै प्रीत चित घरी ।।१२३२।। सासु सुसरे दई निकार । मास गिता कछु करी न सार ।। करम विपाक जाणि मनमादि । जननी पिया दया उर नांहि ।।१२३३।। या मुझसौं का किया न मोह । निर्दय बने असर नहीं लोह।। जो मृगपतो मुझने इहां खाइ । दुःख सकल बियोग मिट जाइ ।।१२३४।। तातील लागै तन तप । छिन छिन नाम जिनेपबर जपं ।।। केस उखारि र पीट हिया । कवण पाप पूरब मैं किया ।।१२३५। बार बार सुमरै भगवंत । तुम विण कुरण सरणागति संत । दूजा कोई नहीं सहाय । बेर बेर सुमरै जिराय ।।१२३६।।