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एमपुराण ताजो पुत्री तुम देई । उनसू प्रीन अधिक कर लेइ ।
समचन्द्र गुग्ण वरण भूप । वा सम कोई नहीं भनि रूप । १८७५|| बरबर म्लेंच्छ मिथलापुर प्राइ । बहुता न घे. या मैं धाः ।। रामचन्द्र ते मारघा घरि । गा भा ज ते माये फेर ||
१८|| वा समये मैं बीनी सिया। तासु कथन मैंने यह किया । चन्द्रगनि कहै हम देव समान । मुमिगोचरी हैं पमू समान ।। १८७६।। कहा म्लेच्छ हैं इसा वगक । उनकू मारू में इक धाक ।। बांधु मलेछ पल में पचषं । वे देहैं मोकू मिल दंड ॥१५८०।। हमरी संका रावा मन धरै । भमिगोचरी क्या सरभर करें । जो तुम हमसों करो सनेह । तो हम मिखावें विद्या अनह ।।१८८१ ।। प्राकास गामिनी विद्या देह । देश देश का कौतुहल करह ।।
सब पृथ्वी पर हो तुम बली । हम सों प्रीति किये होवे रली ॥१८८२।। जनक का उत्तर
वहरि भगा जरा क इह भाइ । तुम समुद्र वे तो भील रा॥ बापी मीर पिदै सव कोइ । समुद्र उदक न वांछ कोइ ।। १८३|| तम हो शशि वे सूर्य समान । देखत भान कला होइन । गाहल पत्र दीस मन्जु भांति । सुरज तेज सो नासी क्रान्ति ।। १८८४१। अनि पतंगै त्रिण बहु ज । दीप जोति मंदिर सब बलं ।। होइ जजाना सब घर माहि । ता मरभर क्या कार है राइ ।।१८८५॥ तुम गयंद वह सिंह केसरी । विन देखें भाज सिंह घडी ।। विनाधर मुणि कोपे भणे । इन हमकों ऐसे अब गगो ॥१८८६।। भूमिगोचरी पषु सम चलें । हम अाकाश तं पृथ्वी बने । किसकी तु बहु कर सराह । भूमिगोचरी बरखाग ताहि ।।१८।। फिरि जनक नप एसें कही । बंम इख्याक दसरथ रुप सही ।। ताकै पटराणी हैं चार । पुत्र चारि तिशश फूचि अवतार १८८८।। एक सो पांच राणी हैं और । ने सोमैं मंदिर की ठोर ।। उत्तम प्रादिनाथ का बंग । घरमा तीर्थ भए जिन अंस ||१८६।1 पंछी जिम तुम उडो प्रकास । ऐसा बल पौरष उपहामि ।। जो तम दिक्षा लेण मन करो। प्रारजपंड ते सिय मंचगे ।।१८१०।। तिहा सलाका सठ पुरुष । पूर्ज सुरपति मान हरष ॥ इहां कोई प्राचै सुर देव । करण चैस्य जिणावर की सेव ११८६१।।