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मुनि सभाचंद एवं उनका पद्मपुरा
हमने छोड़ा सा व्याह । हम जीवत अपने घर जा || रूपयंत प्रिय सों क्या काज | बुरी भलो सेती रहू लाज १९२१ ।।
मारा मान भंग इत भया । ब्रह्मचर्य पाले हम नया ||
सकल भूप त्यां हारी मान । रामचन्द्र उट्या तिए कार ।। १६२२।। राम झरा धनुष खंचना
दशरथ नृप की आग्या लई । त्रिभुवन नाथ सो प्रणपति करी ||
अघि सम तेज चन्द्र उणिहार । रामचंद्र का बल अंत न पार ।।१६२३ ।।
जैसा भेस सुदर्स धीर सोभं कंचन वरण सरीर || जिम समुद्र प्रति श्रगम प्रथाह नहीं राम गुण को अवगा ।।१६२४॥ कर सूं धनुष जब लिया उठाई | क्षमें लिया संघाइ ।। करि टंकार गह्यो जब बाण | गरज्यो धनुष प्रति मेघ समान || १६२५ ।।
बोलं मयूर पपीहा रखें। दादुर सबद सरोवर र
घरतीस्वर गिर कंपे घरगे । जलह नीर तब उछले घणे ।।१६२६ ॥ सीता द्वारा वरमाला डालना
जं जे कार देवता करें । पहुप वृष्टि व सिर परें || रामचंद गले वाली माल । जे जे कार करें भूपाल ।।१६२७।।
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मान मंग विद्यावर भए । लजावंत होई उठि वए || जनक दसरथ के वाजे बजे 1 ता सवय सों दुरजन लजं ।। १६२८।। सिघान परि दसरथ राय । नमसकार कियो सिंह प्राय ॥ सीताराम को जोडी बनो । ते सोभा मुख जाइन गिनी ।। १६२६
मी म्तु नहीं जग माहि । जाकी पटनल दीजे ताहि ॥
चंद्रकिरण पेचर भूपति कंन्या ग्रस्तदस गुणवती ॥१६३० ।। रामचंद्र कृ दई विवाह । सीता संग श्रधिक उछाह ॥
लक्ष्मण ने लोनां करि धनूंष । उतारि चढाइ किया मन सुख ॥१६३११
राजा मकल रहे मुंह वाहि । इन सम हम कोई जोबा नाहि ॥ भरत सोच कर मन बहुत । एक पिता हम चाहे पूत ।। १६३२३१ भी पनुष उठा नहीं काय हनु का प्ररच पुन्य सहाय ॥ पुन्य प्रार्थं ए हुआ बली । इनकी सरभर किम पाएं रजी ।। १६३३३ केकईति पुत्र की और मन मलीन देख्या सिंण ठोर ||
सूरत मन की लावी यास । पति स वचन कहै बहु भांति ।। १६३४ भरत ताँ मनमें वैराग । दीक्षा लेसी सब पर स्याग ।।
कनक गेह सुप्रभा नारि । लोकसु श्री पुत्री तिसा द्वार ।।१६३५ ।।