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१६.
पापुराण
देह छोडि लियो स्वर्ग विमांश । उहां तं च जनक घर प्राण ॥ सीता का गर्भ में प्राना
विदेहा गरभ मागि थिति करी । कुढल मंडलीमी तमु धी ।।१७७२।। पिंगल मुनिवर तज्जे परांग । पुहच्या महापणुक्र विभाग ।। अवधि विचार एक भय तगी। श्रवण पुन्य तं सुरगति बरणी ॥१७७१।। पिछली सूरति ते कोप्या देव । कुडल मंडल का जाण्या भेव ।। उन मेरी थी लीनी नारि । मुझको मारि दीया विकालि ।।१७७२।। मोहि धरणे दुख दीने भूप । तब मैं भया दिगंबर रूप ।। तप प्रसाद अंसी गति नही ! ये दोन्यू विदेहा उदर में सही ॥१७७३।। जनम समें ताकू मैं हरू । प्रपरण मन मान हूं करू ।
देवभरिका फा | अंसी सुरत चिन सुरराज ||१७७४।। सीता भामण्डल का जन्म
नव माल जब पूरण भए । पुत्री पुत्र जनक परि भए । देवता द्वारा बालक का अपहरण
बालफ लिया तब देव उठाः । पकडि वाह गया ले जाइ ।।१७७५।। मारे पेडि तवं बालक हंसें । तब सुर तरां क्रोध मन बस ।। तू कुडल मंडल था मूष । चित्रोत्सवा देखि स्यरूप ॥१७७६।। तिसमें चुराय लेय तु गया । मो कू भी ते' प्रति दुख दिया । तब मैं था भिक्ष क प्राधीन । पिगल विप्न मै वह सम कौन ।।१७७७।। फैकू गगन गरुड ले जाय । डालू सिंध में मच्छ तोहि खांय ।। के पर्वत पर पटकू तोहि । सिला तले दाबू अइसा छोहि ।।१७७८।।
से मन में करें उपाष । बहुरि भया दया का भाव ।। में था विप्र भिक्ष क प्राधीन । दया भाणि साधे गुण तीन ।।१७७६।। सम्यक्रदर्शन सम्यक ग्यांन । तप करि भया देवता प्रारिण ।। अब मैं नया पाप क्यों करूं । याकूले सुभ थानक घरू ॥१७८।। रथनूपुर विजयारच जाय । राय तरणे मंदिर बइठाय ।। नृप सब बालक लिया उठाइ । सुदरसना राणी लई जलाय ।।१७८१॥ उठितू पुत्र तहही जण्या । मोइत प्रांखि उठी जब सुथ्यो । हूँ थी बांझि जण्या सुत केम । बिना गर्भ सुत होवै एम ॥१७८२॥