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मुनि सभाचंद एवं उनका पद्मपुराण
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राजा काहै गर्भ तुभ गई । सोचें कहा लहु सुत मूद्ध । देवता का कुबल दिये । तिनको देखि अचंभ भए । १७८६॥ सांचे पुष जण्यां मैं ग्राजि । किण पहराये कुडल साजि । तब राजा बोल्यो सत भाय । या वु सुर ल्याया इण्य ठांय ।।१७८४।। पुण्यवंत मह शशि की जोति ।
मारियो सेट होति :: नगरी मध्य खबर यह दई । राणी पुत्र प्रसूता भई ॥१७८५11
सुख में बधं श्राय के वाल । प्रगगिात धन खरच्यो भपान ।। जनक राजा द्वारा विसाप
विवेहा बालक देखें नाहिं । रुदन करें नपना परवाह ।।१७५६।। जनक राय रोब तिण वार। हम क्या पाप विराा करतार ॥ अंसा कवण पुत्र मुझ हरॆ । पूरव कर्म उदय दुख पड़े। १७८७।। देण देश कौं पत्र लिखा । करू इलाज पाव किण ठाइ ।।
राजा दशरव मेरा मित्र । वह दू दंगा अंतर प्रीत ।।१५५८।। राजा दशरण द्वारा खोज
दशरथ सरित हूँ सब यांन । वहीं न पाया अपणे जान ।। जनक त्रिपा सों कहैं समभाय । पुण्यवंत वालक बहु भाय । १3८६।। वहै तो बढे काहु के गेह । तुम चिंता न करो संदेह ।।
जे छु मनमंध है हम साथि । तो प्रारिण मिलावंगा जिग नाथ !!१७६० । कन्या का सीता नाश रखना
फंन्या का मीता घरचा नाम । लीला कर बाल सुख घाम !! रूप लक्षण पाशि की जोति । गुण वरण्या कहूं पार न होत ।।१७६१।। वस्त्र प्राभरण वण्यां सब अग । गोद लिया परियरण उच्छरंत ।। दिन दिन बाद्वै सुखस्यों तेह । मात पिता अलि धरै सनेह ।।१७६२।। इति श्री पपपुराणे सोता भामंडल उत्पत्ति विधान
२३ वो विधानक श्रेषिक द्वारा राम सीता विवाह को फानने की इच्छा
जब जोडे श्रेणिक नुप हाथ । एक ससम मो मन जिनमाथ ।। रामचंद्र सीता का ब्याह् । किण विध किया जनक नर नाह ।।१७६३।। राम कवरण पराक्रम किया । कैसें व्याही जनक की घिया ।। वाणी काहैं तब जिनराय । गणधर वचन कहै समझाय ।।१७६४॥