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मुनि सभाचंद एवं उनका पगपुराण
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प्रभामंडल है तासु कुमार । नारद गयो तिरण सभा मझारि ।। उ लोग जोडे दोउ हाथ । दरसन देखि नारद फुनि नाथ ।।१८३३।। नमस्कार बहुत विध किया । नारद ने बहु प्रादर किया । प्रभामंडन ने पट्ट दिखाइ । निरखें रूप अधिक सुख पाइ ॥१८३४।। पदमावती के सुरपती धणी । के किनर सोभा अति वणी ।। बोले नारव सुरणो कुमार । इन्द्र केतु सुत जनक भुवाल ॥१८३५।। मिथलापुर का मुगत राज । विदेहा राणी लाज जिहाज ॥ नाप्त गरभ सीता प्रमतरी । उसका रूप लिख्या तिस घही ।।१८३६।। इस सरत बा मैं गुण घरपे । हाव भाव बढ़ जायन गिग्गे ॥
रामचंद्र को इहै दई निमित्त । तबै इहै मेरे पायी चित्त ॥१८३७।। भामण्डल की सीमा को पाने की !
4सी त्रिया भामंडल जोग्य । विद्याधर जे भोम नियोग ।। इस कारण पाया तुम पासि । चलो मिथलापुर पूजै प्राज ॥१८३८।। भामंडल की सुध बीसरी । सीतां सीता चिज़ में धरी ।। जे हूं मिलू जनक की सुता । दरसरण देखें भाग चिता ।।१८३६।। घरि प्रांगण ता कछु न सुहाय । अन्न पनि मुख कबहुं न खाय ।। दिन दिन कुंवर भ्रमता जाइ । सन सूके राणी पिछताय ।।१८४०।। प्रभामंडस मन सीता लामि । सुख संसारी दीया त्याग ।। मान पिता की लज्जा करें। विरह अगनि सूदेही जर १८४१॥ मंत्री सोच कर अधिकाइ 1 ता दिन देखी फुतली राय ।। वाही दिन से है यह सूल । या की प्रौषधि मंत्र न मूल ।।१८४२।। राशी का संसव किया । सासू सुसरां सूभेद यह दिया । जव ते पट्ट देख्या इह पूत । तव ते याकू' लाग्या मूत ।।१८४३।। स्वारण पान वस्त्र सब तज्या | बह तो करें तुमारी लज्या ।। तुम पूछो सिसका बिरतांत । कारण कवरण तुम सूके गात ॥१८४४।। मात पिता कुचर डिंग गए । वाका मन भी पूछत्त भए । नरमति कहे करो सनांन । भोजन नीरखावो तुम पांन ।।१८४५| प्राभूषण तन सो संवारि । तुमने इंछा सीता नारि ।। अब हम जतन व्याह का करा । तेरा कारज वेग ही सरा ॥१८४६।।
भामंडल का दुख अब गया । करि सनांन उठि भोजन किया ।। चनगति द्वारा उपाय सोचना
चन्द्रगति मन सोचे घणां । कुछ हरषं कुछ चिंतावरणा ॥१८४७।।