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पपपुराण
तब उठि मित्र वीनती करी । हासीक ना सांची चित्त धरी ।। तुम तो चले ब्याह के काज । कवण समय दिक्ष्यां की आज ॥१५२६।। बोले कुमर सुपन समरिघ । मात पिता कुरण भाई दंध ।। जैसी पर फुलत है सांझ । श्रमे सुख कू लवकं मांझ ॥१५२३।। विणमत वाहि न लाग वार । अंसा है संसार अमार ।। धन्य धन्य तू मेरे मित्र । तें मोहि कही परम की रीत ।।१५२८।। तुझ प्रसाद सिय मारग गहु । तेरा गुण मैं कवि लग कहू ।। अंसी बात सुणी परवार । बाल वृद्ध पाए ति बार ||१५२६। दादी माता सब मिल ग्राद । प्रौर करें बट ज- समय ।। तु बालक जोबन की बार । करो विवाह भोग मंसार ॥१५३०।। कुबर भणं संसारा थिति । जोषका कोई सगा न इस ।। सोग विजोग रहद की घी । कयही रीती काही भरो॥१५३१।। सब साता तं पात्र सुख । अशुभ करम उदय ते दुल ।। सुख भुगतै जो सागर बंध | इक पलके दुख मैं सब दुद ॥१५३२।। तात हू अब तप पाचरू' । परम नाव भवसायर तिरू । गुणसागर मुणितर के पास । दिक्षा लई सुगति को प्रास ॥१५३३॥ दोई सहस अरु नः स कुमार । भए दिगंबर केस उतारि ।। मनोदया सांभली यह बात । दिक्ष्या लई अजिका के पास ।।१५३४॥ विजयसेन सुरेन्द्र मनिभूप । बैठे सफल सोग के रूप ।। वह बालक सुकुमाल सरीर । कैसे सहेगा परीस्या पीर ११५३५॥ हम तो राज भोग बहु किए । ऐसी कछुवन पाणी हिये ।। जरा च्यापी देही जो जरी । कैसे होय तपस्या खरी ॥१५३६।। जोवन समय संभाल्या नाहिं । अब पिछताया होवे काहि ।। समझाये सब मंत्री ग्राम । जो कछु सधै सो करि जाय ।।१५३७।। सोई घडी सधै सन धर्म ! वाही घडी करें अप कर्म ।। सकल राज रिष करि त्याग । विजय साह हुमा वैराग्य ॥१५३८।। पुरिंदर प्रति सोप्पा निज राज । प्रापण किया दिगवर साज ।। विजयसेन संग राजा घने । भए जती मद पाठी हणे ॥ १५३६।। निर्माणघोष घोष मुनिवर के पास । भये साप मन पूजी पास ।। पुरीदर राजा पृथ्वीपति अस्तरी । कीसिषर पुत्र भया सुभ धरी ।। १५४७ ।।