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पद्मपुराण
२१ वां विधानक
चौपई दशरथ वर्णन
राजा दसरथ अजोध्या धनी । सास्त्र मांहि जिनवाणी मुणि ।। नितप्रति पूर्ज श्री भगवंत 1 गुरु सेवा साधं नित संत ।।१६.४ ।। सरत्र सुनी नगरी में लोग । धरम राज सुभुगतं भोग ।
राजसभा जे इन्द्र समान । मुनिसुव्रत का सुगा पुराग ।।१६४१।। नारद मुनि का प्रागमन
तिहा नारद मुनि पहच्या प्राई । मकल लोक उठि लागे पाव ।। समाधान पूछी बहु भाति । कुरण कण सीरथां करी जात ।।१६४२॥ दीप अठाई में करो गमन । बंठि विमाग चलो जिम पवन ।। पुअरीकणी क्षेत्र विदेह । सीमंधर जिण सासण गेह ।।१६४३।। समोसरण जो पुराण सुणे । सो प्रत्यक्ष हम देखे धणे ।। संसार मेरे मन ते टरा । अनंत गुणां सुदेखो खरा ।।१६४४।।
केलि भाषी वाणी सत्य । भषियण सोग सुणं परि चित्त ।। नारद द्वारा रावण की बात करना
प्रवर कही रावण की बात । कुभकरण भभीषण ध्राप्त ॥१६४५।। नलनील अब र सुग्रीव । हणुमान सुभटों की नींव ॥ सोलह सहस्र सभा में भूप । हाथ जोडि खडा रहै अनूप ।। १६४६।। तीन घर जीते सब देवा । नरपति सकल कर प्रादेस ॥ निमितम्यांनी सागर की पूछि । मेरी भाव कहो पागम बुझि ॥१६४७।। मैं सब जग बसि कीनां सही । एक खुटक मेरे मन रही ।। काल रहा है मोसुभाजि । वा का जतन करों में माजि ।।१६४८।। कहो वेग मोसु विरतांत । तो मेरे मन होवे सांति ।। तव निमित्ति यह कही विचार । दसरथ सुत लक्ष्मण कुमार ॥ १६४६।। जनक सुता का कारण पाय । ताक हाथ तेरी है प्राय ।। या मनि सुरिण चितवं नरेन्द्र । भूमगोचरी किम व्हे बंध ।१६५॥ दोन्युनुप का किंजे नास । तो मैं रहूं अमर जग बास ।। भभीषण समझा सुरिण यात । दशरथ कनक नाम बहुभांति ।।१६२१॥ किसकों मारौं कहाँ भुपाल । विरण समझयां क्यों करौं जंजाल । तब ही में पहूंच्या तिरकुट । माघे कारण भेजे दूत ।।१६५२।।