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मुनि सभाचंद एवं उनका पमपुराण
१५६.
मान पिता विभव घर त्याग । ढूढरण कारण गया है भाग ।। पवनंजय को तुग ढूढो जाय । अंसा काहै प्रहलाद जु राय 1। १३६ ०१।
अनिसुरज जलीलों दई । यो कुरा सुन नहीं ।। प्रजना को चिन्ता
असे सुने प्रजनी बैन । चिता ब्यापी भयो कुचन ।।१३६१।। अब ली थी उसकी मृम मासि । नौ लीया अब बनवास ।। अब हूं तजू आगने पारा । अंसी मोहि बरणी है आंण ।।१३६२।। वसंतमाला सूरिज पं गई । सफल बात तासू वीनई ।। तुमारी भाणजी व्याकुल होइ । तुम या धीरज देवो कोई ।।१३६३।। प्रति सुरज अंजनी सौं कहै। तु काहे को चिता गहै । बठि विमारण प्रथी सब देरिन । पवन मिला तोहि विसषि ।।१३६४।। सज्या बिमांग चल्या आकास | देखे बहुपुर पट्टण वास ।। प्रहलाद तणे विद्याधर घसो । विभाग प्रारूल भले सब वगे ॥१३६५।। चले बहुत विद्याधर भूप । प्रतिसूरज पहुंच्या रवि रूप ।। देस्य सकल पवन का खोज । वहुत विनय कर सत्र सौंज ।।१३६६।। देन्या हस्ती वन के माझि । पहिचान्या सम ही जन ताहि ।। हस्ती ने देखी बहु भीर । वन में कोई न पावं तीर ।।१३६७।। पट्टा चुखै अधिक मयमंत । परिदक्षणा देवे बहुभांति 11 प्रमु रक्षा कर गयंद । बल न विद्याधर का बंद ॥१३६८।। कागद की हथणी दिजलाइ। हाथी बांधि लियो तिन डाय ।।
पस्न बैठा कर संन्यास | गही मौन जीव तजि प्रास ।।१३६६।। पवनंजय की प्राप्ति
प्रहलाद देवि अति निता करें । मति यह रूप दिगंबर घरै ।। माथा चुच्या पुत्र का जाय । बहुत प्रकार करी गमझाय ।।१३७०।। इह दीक्षा की नाहीं बार । बब तुम सुख मुगतो संसार ।। ग्रागै जब संपति छ भला । तब दीक्ष्या लीजा मन रली ।। १३७१।। मौन माहि इन सन इम कही । त्रिपा वियोग संन्यास मैं गही ।। जब अंजनी मैं देनु नैन । तत्र मैं बोलू मुख सों बैन ।।१३७२।। अन्न पान मैं तब ही खाउं । मैं अब घरया मरण का भाव ।। तब रोब विद्याधर धणे । राक्षस वानर बंसी जणं ।।१३७३।।