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बसंतमाला समझा ताहि सुख दुख करमतरा फल अहि ।। इन होत न लागे बार। कबहुक रंक कबहु भो बार ||१२३७।। नहि देखि धीरज नहीं घरै । वसंतमाला अंजनीक || प्रजा का गुफा में शरण लेना
परवत ऊपर गुफा हैं भली । दोन्यु गिरिवर ऊपरि चलों ||१२३८ तिहां भीयंग करें फकार | बारह कोस होइ वन छार ।। देखत वन लागे भय धरणी । नभि सुरत श्रार्य कंपणी ॥१२३६ ।। भांडी सूल पडे चिहूं प्रोरि । पांव धरण को नाहीं और कपडे भाडो सो लग फटे । वारिफ कोरि देह को कटं ।। १२४०॥ पग भीतर वह कांटे गि । अंसे दुखों परवत चहुँ ।।
तिहां ठोर षोह बहु परी । वाहि देखि वह दो डरी ।। १२४१ || की वृक्ष नल चले न पांव | वसंतमाला बौली यह भाव ॥
जिस तिम चलकर यांनक यहीं । गुफा मांहि निरभय है रहौ ।। १२४२॥ देवी बुलि दुनिया पिंड पाव विपास हुआ ई पंड || लेइ उसास गजनी | चला न जाय कठिन गति बनी ॥१२४३ वादाही कहीं नांव दी विविध किरण दिस जाउं ॥ ३ वसंतमाला कर पटया माइ । यांभती ढेकली गुफा में जाय ।।१२४६। सघन वन में सुनि दर्शन
मुनि वंदना
पद्मपुराण
ठि गुफा में आश्रम लिया मातंग वन सकल दृष्ट में किया || देखें वृक्ष मनोहर फले । ता वन में मुनिवर तप करें ।। १२४५।। नासा हष्टि श्रातम ध्यान तेरह विष पाल भरि ध्यान ।। सर्व्हे परोसा बाईस धीर मुनिवर वन में भय नहीं धरं । देह तसी ममता परिहरें ॥ ग्यानवंत जिस समुद्र गंभीर । मुल्या भव्यां बतावें तर ।। १२४७।।
छह frg को भ्याएँ नहिं पीर ।। १२४६०
जाक है उत्तम छिमा यादि । पंथ इन्द्री का लहें नहीं स्वाद || अंजनी आइ प्रदक्षिणा दई । नमस्कार करि चरणां नई ।। १२४८।। वसंतमाला किया परणाम बारंबार पर्छ गुणग्राम ॥ समाषांन पूछें मुनिशय । मुनिवर भर्गो करम परभाव ।। १२४६ ।।
महेन्द्रसेन की इह पुसरी । सस सील संयम गुण मरी ॥ प्रहलाद राय पवनंजय पूत । बाईस वर्ष दुख दिया बहुत ।। १२५७ ।।