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मुनि सभाचंब एवं उनका पयपुराण
प्रेसी भांति कहैं वहु बोल । मुनिवर साधैं तप अडोल ॥ ग्यान लहर में बैठा जती । राग दोष मन में नहीं रती ।।५२७।। पाया पर्वत के तरहान । सुमरत विद्या ठाढी भई मान ।। एक महरत एक घडी । विग पाई सकल तिहां गरी देह वेगु प्रभु प्राशा, प्राज करां जिका फरमानो काज । निज देही तब कीधी वडी, सब विद्यो वाक संग घड़ी ।।५२८॥ गरी एक गदा गिर थांन । भई षातिका कूप समान ।। दसानन गया तब पाताल । गिर उठाय लिया ततकाल ॥५रहा। छन्त्र समान उठाया सीस । भुजा उंचाई उंच बीस ।। केपी धरती हाल्पा रुस्न । ऊंची पई परवात की कुष ॥५३॥ हस्ती घोढा करें चिंघाद्धि । डरप केहरि खाइ पछाइ । पंथी उसे हले तरु डाल । मानु आया परलय काल ॥५३१॥
अंधकार दोसै चिहुं भोर । चली नदी जल परवत फोर ।। बाली द्वारा चिन्तन
मति श्रुति अवधि मनपर्यग्र ग्यांन । बालि साध तव कर विचार ॥५३२।। अवधि प्रमाण करि पित ध्यान । दसानन हैं या परवत ठाम ।। तिण उपसर्ग किया इत प्राह । कहा पाश्चयं मुझ लूट काइ ॥५३३॥ एक बार है मरण निदान । तात सोच न करिये पान ।। होणहार नहीं टारी टरै । विकलप ण कारज नहीं सर ।। ५३४।। वाल साप इम करें विचार । मुनिवर यां तप कर विचार ।। वे मुनि केवल लोचन सार । मति श्रुति अवधि मनपरजय कार ॥५३।। कंचनमय अमष्ट्र देहुरा । रतनलिंब अनसंख्या करा ।। गिरि उपर निबस यहु जीव । रब नै दुख भाप दसग्रीव ।।५३६॥ यह मुझ नै होसी अपलोक । इण परि बनि कर मन शोक ।। मुझ न मच्छ ए तो पराक्रम | इसको तुरत गमाउं भर्म ३५३७।। दया निमित्त में लीघा जोग । अब इण पर मुझ वण्पो नियोग ।। जो हूं उस पर कर कषाय | तो मुझ तप सहु निरफल जाइ ।।५३८।। अपने जीव का भय नवि करी । प्रवरा तणो सोच थित धरी ।। पर उपहार कर जो कोह । ताको कछु वन दूषन होइ ॥५३६॥ इम चितवी अंगुठा टेक । भई विद्या ईक विद्या एक ।। बीस भुजा सहि सके न भार । ज्यों ज्यों दबई स्यों कर पुकार ||५४०॥