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पापुरास
माया श्राय इण पर हरी । देखत सब की मुधि बीसरी ।। भभीषण सन्मुख दोडघा आय । दुहूंघा जुध भया प्रधिका ३८६०।। नलवड बांधिया तुरंत । भभीषण जीत्या बलवंत ।। बनमाल गढ़ सम नहीं और । बहुत देस पहुंच्या वह सोर ।।८६१।।
रावण का जस प्रगट्या घरण । उपरंभा भान सुरत घणां । मैं विद्या रावण में दई । मढ़ पायार जीत सब भई ।।८६२॥
मेरी बहुत करंगा कांशा । गई अंत:पुर अनी जाणि ।। रावण ने मद मानर दिया : माता वपन मुस्न मौ बोनिया ।।८६३।। तुम गुरुरणी मुझ विद्या दई । तुम मुझ मात धरम की भई ।। गुरुणी माता साह की स्त्री । पावज आश्रित गांव पुषी 11८६४१।
इतनी माता पुयी समान । जोग अजोग कर पहिचान ।। नलकूबर की राजा से बात
नल कूबड को लिया बुलाय । तिणसों कही बात समभाय ।।८६५।। जो तुम चाही आपण देस । तो मुझ पाप मानौ धौ येस ।। जो तुम कुछ इंछा सो देउ । अब तुम मांनी माहरी सेव ॥८६६॥ अपरंभा माता की शोर । तुम हठ राज करो सुबहोरि ।। नलकूबड बोले करि ग्यांन । मैं पाया है इंद्र का घांन ।।८६७।। निज प्रति बोझ अवर का होय । ताको भला न ऋहसी कोई ॥ जनम जनम को पहूँ कलंक । अपने जी की मानें संक 11८६।। नल कूबड छोडी वह नारि । विजयाई पहुंच्या तिहबार || रथनपुरहं इंद्र 4 गया । सब वृत्तान्त नर वैसों कह्या 11८६६।। सुणी बात जब कोप्या इंद्र । रावण ने इंल्याउं चंदि ।। मैं उसने दोन्ही यी छूट । उन देश में मचाई लुटि ।।६७०।। देखि जु वाहि लगाऊं हाथ । असी फिर न करें किरण साय ।। पूछ्या जाव फिर तासूमता। भैसी बात सिखानो पिता ।।१।। जिह विधि रावण ने क्यों जीत । युद्ध तणी समझायो रीत ।। सहस्रार बोले समझाय । रावण राक्षसबंसी राइ ||८७२।।