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पद्मपुराण
समव्याक वेदकसम किती । निश्चय विवहार दोष विष थिती ।। परिहंत समान देव नहीं कोइ । गुरु निर्ग्रन्थ संतोषी होइ ।। १२४२॥ सास्त्र ते जिस माहीं दया । इष्टष्टि करें नहीं भया ।। देव कुदेव है पूजे नहीं । पाखंडी गुरु की बात न सही ।। १०४३।। कुसास्त्र में मान नहीं पांच । निग्रह कीजे इन्द्री पांच ॥ श्रपरोक्त कीजे उपवास | खोटे व्रत ते होय पुन्य का नाम ।। १७८४ ।। बरत कर के कंदमूल को खाय तो किया कराया निरफल जाय || य माहार कहें हम व्रती । मनुष्य जन्म की खोदं कृति ११०४५ ।। च घडिया प्रथमी करे । प्रथवा घडो दोय प्रशासरं ॥
रात्रि भोजन निषेष
कहीए मानुष की जात ।। १०४६॥
भोजन रयण त तिहुं बात जे नर रयण भोजन खाहि । राध्यस सम जारिगये ताहि || पशु जाति से हैं अमान जैसे मांस भषी हैं स्वान ।। १०४७।।
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कीट पतंग माकडी घणी । वाफा दोष न जाय न गी ॥
ते सब गति प्रति षोटी लहैं । रोग सोग दुख भव भव सहैं ।। १०४८ ।।
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केई जनम दलद्री हो । थोडी प्रात्र हैं जिय सोह || लख चौरासी भ्रमैं संसार । ते कवही नहीं पाव पार ||१०४६॥ भोजन रथण त बरि ध्यान । ते भव भव मुख लहैं निदान || पंचमि गति पावें निरवारण | सकल लोक में उत्तम
॥१०५०।।
वहाँ
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जेनर निशि भोजन करें, कंद मूल फल खांई ॥
ते चिहुं गति भ्रमते फिरें, मोश ग्रंथ तिहां नह ।। १०५१ । ।
रात्रि भोजन त्यागे सर्व । उत्तम कुल पाव बहु दर्द
भले भले मिंदिर प्रवास | के सुख विलस के जाइ प्रकास ||१०५२ ।
तीस लक्षणी पावें नारि । रूपयंत रासि के उपहार ॥
स गामिनी कोकिल गया । समद्र सुरात मन उपजत चैन ।। १०५३।। पुत्र सपूत होहि तिसु भले । बहु खोटे मार्ग न च ।। सज्जन कुटंबरु भाई घणे 1 प्रादर भाव कहत नहीं बणे ।११०५४ ।। छहीं राग अरू सीस रामणी । होहि नृत्य सुख सोभा धरणी ॥ कनक मई पाई अति देह सोचन कमल है ससि नेह ||१०५५ ।।