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पप्रपुरास
वे गढ़ में पहुंचे सब प्राय । दीये किबारे भीतर जाय ।। सो जोजन ऊंचा मठ देखि । दस जोजन चौंडा सु बिसेष १३८३३|| कांगरे कांगुरे धरी कुवांन । हथनां तांका अंत न पान ॥ पूजा करी रावण नीवरचा । देख्या गड सापर मन भरघा ।।३४|| सूर सुमट बहु दिये पठाप । गढ ने हाथी दिये इकाइ ।। दांस टूट कर मस्तक हनें । इनका कद दाव नहीं बने । ८३५।। रावण पर तब भाये घने । असे कठम न देखे सुने ।। गोला गोली लगन वाण । ता गड परि क्या चले सयान ।।८३६॥ यह सुणि रावण चढचा विमांन । ग्यारह मैं मोहणि बलवान ।। ऊपर तं मोली की मार । उलटी सेन्यां होई संघार ।।८३७।। च्यार जोजन गोला विस्तार । जहाँ पड़े तहां परलय कार ।। बहते लोग जुड़े सावंत । तब बोले मंत्री विनयवंत ।।३।।
यह गढ कठिन पावै नहिं हाथ । अब फिर पलो लंकापति नाथ ।। बोले भूप महा बलवंत । जो छेकं तो लोग हसंत ।।८३६।। अब इहां रह करि कगे उपाव । जो गढ पाव किए ही दाव ॥ कैलास की खोह में मोरचे किए । बहुत उपाय बिचार नए ।।५४०॥ ऊपर भा नल कूवर घनी । रावण के चित चिता घशी 11 कुपवंत सुनिये है सही । उन जीती है संगली मही ।।८४१॥ एक बार हूं दरसन करउ । दससिर देस्त्र सुम्स मन घरस । वनमाला द्ती नै टेर। रावण पासि जाय के बेर ।।८४२।। प्रस कोई मूर्ण नहीं कोइ । कहिए अंतहपुर की ठोर ।। जो तुम ढील काम की करो। प्रारस वेग तुझ पर हां करो ॥८४३।। दूसी कई भय मोहूं जाय । जंद फंद सों प्रानौं राय ॥ मामरण सजि दूती गई । जोहन मोहन विद्या लई 11८४४।। मंदिर मांहि निरमय रहै बसी । रावण देखि मन में प्रति हंसी ।। पूछो गप कहो सत भाव । कवण'काज पापी इस. ठाव ॥८४५॥ नलकूबड़ को है पटधनी । रूपलक्षण सोहै प्रति धनी ।। तुम सौ बहुत कहीं वीनती । दरसण देहु कृपा करि प्रती ।।८४६।।