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मुनि सभाचंद एवं उनका पमपुराण
उहाँ मुनि इंद्र शुधर्म विमांगा । यात्र मुमति रावणा भया प्रांन ।। गुणसेन जीव भया तू इन्द्र । या सनमंय किया तुझ वंदि ॥१७७11 पिछली सुरिंग मन भया अडोल । रावा किया मित्र का बोल ॥ जो उन मोसों कीन्हां जुध । तो मैं लही धर्म की बुधि ।।६।। घा के ह जो मुकत की ठोड । वा परसाद गई मुझ घोड 11
सुध्यां धरम रथनूपुर गया । जयंत कुंवर ने राबर किया ॥७९ इन्द्र द्वारा मुनि शैक्षा
इन्द्र भूप दिगंबर भया । तेरह बिंध सौ चारित्र लिया ।। सह परीसरस मास ! करम का पाते । ६. कवलग्यांन सन्धि तसु भई । जे जे सबद दुदुभी आई ।। परम प्रकास संवोधे घने । इन्द्र मुनीन्द्र भेरा वे बने ॥९८१॥
इन्द्र भूप इह विध घली, धग्यो धर्म हट चित ।। भवसागर ते उत्तर करि, सुख भुगतें वर नित्त ।। २।।
चौपई भुकति गया मुनिवर श्री इन्द्र । पावं सुख सास्वते पानंद । ज्योति ही ज्योति एकटी भई । इन्द्र प्रमू पंचम गति बही ।।६५३॥ रवि उचोत पंधरा मिटे । केवलवाणी संसय मिट ।। मन धर कथा इन्द्र की सुनै । ते नर अष्ट करम को हौं ।।६८८॥ इति श्री पमपुराने इन्त्र निर्वाण विधान ।
१४ वां विषानक
चौपई प्रजन्सवीधे मुनि को कैवल्य प्राप्ति
दीप घातकी मध्य गिर मेर । अनंतवीर्य जिरण केबल वेर । सावन पर्वत पर जीण माथ । इंद्र प्रादि देवता साथ ॥५॥ बैठ विमान देव सब चले । मुकटां की मणि सोमा भले ।। पृथ्वी दसों दिसा उधोत । रतनां तसी विराज जोत ।।६८६॥ बाबा बाजै नाना भांति । सब सुर घले जिनेश्वर जात ॥ देखि विमाण समरण चितवै । तब मरीच मंत्री बीनवं ॥१७॥