________________
१३०
पपुराण
चियो विवाह घड़ी सुभ साव । भोग भुगत कीनी अति वाधि ।। एक दिन सूता था आवास । विद्याधर ले चले अाकास' १६६६।। ग्रानंदमाला जागी तिरग बेर । सेज्यां अकेली देखी फेर ॥ तब उपज्या मनमें वैराग । सकल वस्तु का कोना त्याग ।।६६४||
सावनी नदी तट तीर । परच स्वरत मुनिवर तप धीर ।। विभा लई मुनिबर में जाइ । करै तपस्या मन वच काय ।।६६५।। गूगशा जाग्या सिंह यार । विद्याधर सों कीनी मार ।। भाजि गये दुरजन के लोग । प्रामा निज नगरी में लोग ।।६६६।। देनी नहीं त्रिया घर माहि । चिंता करता गई सांझ ।। गई सुरत मुनि यानक गया । क्रोध वचन मुख सों बोलिया || ६६७|| मेरे डरते लोया जोग । अजी अभिलाषा रास भोग ।। सोहागरिण तें वाई करी | प्राई तुझ मरने की घडी ।।६।। मुनिवर कु' बांध्या यहुभाति । मारचा पाछे मुक्की लात ।। मुनिवर कछुवन आणे चित्त । सहै परीसा पापणं नित्त ।।९६६ इत्तनों है पासु वर्शन । सो मुझन भुगत्या परवान ।। चिदानंद सौं ल्याया ध्यान । ह्यां इसका होसी कल्याण 1|६७०|| वोली नारि पति ने दे गालि । रे पापिष्ट मुनि किया बेहाल ।। ए मुनिवर मन अंतर रहैं । छह रितु के दुख असें महैं ।।६७१|| ते क्यों प्राप्त उपद्रव किया । किरण हित साए प्रत दुख दिया । तेरा होमो राज का मंग । इस सराप दिया तिण संग ।।१७२१ मुनिवर तिथ रिघ की भई । वा सम्म रिख कल्याण ने दई ।। गुणसेन सोच कर मन मांहि । इह सराप दलणे का नांहि ॥६७३।। सीलवंत का वचन न ल । मैं तो पाप बहुत ही कर ॥ वंधण दिये साधु के योलि । अति मधीन होय बोल बोल ।।६७४|| मुझ में घाज भई अब बुधि । माया जाल तें भूली सुधि ।। यब कष्ट ऐसा करूं उपाव । नास पाप लहू सुख ठाप ।।७।। मुनियर करी धरम की टेक । सत्र मित्र सम जाणं एक ।। मुनिवर कहँ ग्यान के भेद । तप करि महेन्द्र भया यह देव ॥६७६॥