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चौकी बैठी घाटी घेर । कोई न असंकं सिंहं बेर ।। जलक्रीडा सरोवर बीच। पेस राणी माची की ||४६४ ॥
अंजलि मरि भरि नीर
हिरा 1 राजा लीने कमल उषारि । मारे उने मनावें हारि ||५६५ ||
कोई रुठि रहे मुष मोरि । ताहि मनावं भूप बहोरि ।।
विविध प्रकार की क्रीडा करी । गावें मंगल सब मिलि तिरी ॥५६६ ।।
रावण द्वारा जिन पूछा
अपने मन निरभय बरे । रावण पूजा ने चित घरे || सामग्री पूजा की सोज । निज यांनिक साजा करि चौन ।।५६७॥
भष्ट द्रव्य स पूजा करें। श्री जिनवाणी मुख उपरं ॥ जल धारा का इह विचार । त्रिया दोष मिट संसार || २६६||
वेसर चंदन जिरा ए दले । भय प्रताप मिटे संपए ॥ पहुप चढाव जिस प्रतिबिंब / सीलन टरें रहे गन थंभ ।। ५६६।।
उज्वल अक्षत पंडित नहीं। इस विथ पूजा कीजे सही ॥ नेवल भाल चढाव परे । क्षुध्या श्रादि दोष हरे ।। ६०० ।।
दीप चढा रतन सम्मान । निश्व पायें केवल ग्यांन ॥
धूप सुगंध निमित्त । आाठ करम जर जावें अंत ॥। ६०१ ||
पद्मपुराण
फल जु चश्चार्य बिरस पद पास पावैं मोक्ष तरां भावास || विनयवत भारती करें। ऊछले जल रावण किंग परे ।। ६०२ ।।
सा निडर इहां नहीं कोह ||
रावण के मन चिता होइ । उन कछु करी न मेरी कांणि जिनवर के डर करघा न जारि ||६०३ ।।
प्रव देखउ हूँ हो तुम जाइ । बेगि बांधि प्ररिंग इस ठांइ ॥
गई बस तिहां पेले राय रखवाला वरजं मति नाम ।। ६०४ ||
सूर सुभट भीतर घरि गये । वाकु देखि अचंभित भए । तू इस तें हिव नीकलि मूहि । में तो भब पाया दुडि ।। ६०५ ।।
तु प्रय चल रावण के पास पास जो चाहे जीवण की भास || और जो त मन रात्र भर्म | देख जु भव करू " है कर्म ॥ ६०६॥