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पापुराण
नारद मुनि देखें धरि ध्यान । ब्राह्मण बहु बैठो लिहिं यांन । बहु तपसु जिहां राषे धेर । होम ज्ञिया चाहे तिहि बेर ।।७२।। तिहां नारद मुनि पहुंला पान । जटाजूट घोती तरहांन ।। कांघ जनेऊ पोथा लिथे । हाथ कर्मबल फीची किये ॥७२६।। देव शब्द वाता संस्कृत । नारद जांनि द्विज आदर कृत ॥ नमस्कार कर सब लोग । वंदनीक सब पूजण जोग '१७२७।। संवृत में पूछया वृत्तान्त । जीव जंत क्यों घेरे भ्रान्त ।।
भण विन इए को ह्रघात । अग्नि बीच हौमैंगे प्रात ।।७२८।। नाम का उपदेश
नारद मुनि विप्र सों कहे । मारचा जीव नरक दुष लहै ।। दया भाव सर्वज के बैन । दूषन दीजे देवत नैन 11७२६।। सकल पातमा प्राप समान । सब की दया कहीं भगबान । संवृत द्विज नारद प्रति भने । रूप रेष अरु सबद न जिने । ७३ ।। उन सरवज्ञ किम श्रापी दया । तू मुरिस कल भेद न लिया ।। नारद बोल सुनि विपर अज्ञ । रूप न रेख जैन सरवश ॥७३१॥ पाए मेद ए तो किए कह्मा । जिसके कहैं वेद तुम ल ह्या । महा अनर्थ लिखा जिहं बीच । अंसा करम करें नहिं नीच '७३। ब्राह्मण कहे ब्रह्मा का ग्योन । जिन सब रची सृष्टि परवान ॥ ए सब पशु होम के काज । अह्म वचन महकिया साज ।।७३३॥ नारद मुनि फिर उत्तर देय । जे ब्रह्मा सब सृष्टि करेय ।। ते सब हुए पुत्र समान । वाने दहन क्यों किया बधान ७३४।। पसु तृणचारी है वनबास । इनके जिनका न करिये नास ।। त्रिषा भूष धूप ए सहैं। ऐसे दुःख छहाँ रितु लहैं ॥७३५।। तिनको कहा कीजिए घात । हिंसक है विडाली जात ।। जीव बद्ध ते मुक्ति न होय । प्रापण पाप करें जे कोय ॥७३६।। पारी गति में सह संताप । जब वे प्राणि उदै व पाए !! मन वांछित नहीं पूजे भास । मंदर दारिद्र तर्ज नहि पास ॥७३७॥ * गयंदनी माणस जग। तुरी गर्भ हसती गति वर्ण ।। गदही उदर तुरंग प्रसूत । तो हत्या से मुक्ति संयुक्त ॥७३८॥