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श्रादि पुराण में इनका भेद । सुखी भूप हूं कहीं न भेद !! नाभिराय के रिषभकुमार तिवासी लख पूरब राज संभार ।।७५२ ।।
ऋषभ वर्णन
रही प्रांष पुरवल एक इन्द्राणि ॥
ए हैं प्रथम तीर्थंकर देव । इनतें चलई घरम का भेव ॥ ७५३॥
ए माया में रहे मुलाम । मन वैराग्य उपजे किह भाय ॥
एक अपरा थी परवीन । जाकी श्राव घडी वोय तीन ॥७५४ ।।
पद्मपुराण
राज सभा में नाची भली । देश नृत्य उपजी मन रली ।। निरत करत तहां पूरी लाव | खाइ पछाउ परी मुषि ठाव ॥७५५ ।।
बोले भूप उठाबो याहि याकी बेग गहों तुम ह ।
मंत्री कहैं यह पातर मुई। तत्र छोडघा सब पृथ्वी का राज भर दिया अजोध्या राज ।
यार सहस राजा भए संग वन मौनि गही जिनराज ।
राग चिमक चिल भई ।। ७५६ ।। आपण चले घर के काज || बाहूबल पोयापुर साब ।।७५७ || दया भाव चित सहर तरंग 1" राजा भवर उठे प्रकुलाइ ।।७५ ८ ।।
भूख हमासी सहियन जाय । जो श्रपणे घरि चलिये बाह्र || तो फिर हमें भरत दुख दे | अँसी मनमें वित्त घरे ॥७५६॥
वन फल खाई पो नीर । जोगी संन्यासी तप सहे सरीर ॥ एक हजार वरष गए बीत । श्री जिण उपज्या केबल चित्त ।।७६० ॥ केवल वाणी संस्य हरे । ताहि सुरत भव सायर तिरं ||
भरत बाहुबलि बंड । जिन भूजवल साधे तु षंड ।।७६१ ।। लक्ष्मी जुडी भरा मंडार । जिसका निरपत न भावपार ॥ गिर कैलास शिखर देहूरा किया। रतनविय संवराया नवा ।।७६२ ।।
तो भी लक्ष्मी पार्ट नहीं । दाण देख इच्छा मही ॥ कोई न सेन दोन ने आइ । तब वामल कू थाप राय ॥७६३॥
आदिनाथ स्वामी पे गया । ब्राह्मण का ब्योरा सब का || रिषभ देव की वारणी भाई । वह उपाधि तुम थापी नई ||७६४ ।।
जैन घरम के निंदक होंइ । पाप उपदेस कहेंगे लोइ ॥ भरत भनें इन करिहूं दूरि । सय को मार गिराऊं मूल ।।७६५||