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रावण साध को दरशन देपि । सफल जनम मानो बहुलेष || उतर सिघारण करि इंडोत । रावण प्रस्तुति करी बहुति ||६२०|| सकल सभा कीनों नमस्कार | धर्मं वृद्धि दीणी तिरणबार || सिंघासण ठाण्यां मुनी । वैयावत कीधा नृप घनी ।। ६२१ ।। हम प्रा थे वह मकारि । विधनां पूरी इच्छा हमार || तुम प्रभू हम पे करतारश्च किये। तुम दरसन सुख पायो हिए ।।६२२।।
अब सेवक प्रति प्राग्या देहु । ज्यों मेरो भार्ग संदेह ॥
किरण कारण यो कियो गमा । स्वामी वचन तजि भाष मौन ||६२३||
कहैं साधु तुम सुणु नरेस | मानों तुम म्हारो उपदेस || सहस्ररश्मि नें छोडो राज । या कारण श्रामा इस ठांव || ६२४ ||
पद्मपुराण
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रावण कहै सुरो प्रभु क्षी मोषविि जो तुम श्राग्मा देते मोह में छोडतो प्रभू श्रत्र तोहि ॥ ६२५|| आपण कीधे षेद | मायाजाल कीये सब भेद || मुनिवर बोलें चित्त विचार । सकल जीव मेरे इकसार ।। ६२६ ।।
तुम
दया हेत श्राया तुम पास अभयदान दीजे सुषवास || रावण कहै सुरण मुनिराह । हमसे सकल मिले ग्रुप श्राइ ||६२७||
सहस्ररश्मि प्रति कोनी मनी । मिलन न आया सामनी ॥ हम पूजत है श्री जगदीष । तउ उन प्राया नमाया सीस ||६२८ ॥
जल उछालि डारघर ति ठाव । मोकु चढघा क्रोध का भाव ॥ लोग बंदाया उसके पास । उग तो कश्या प्रांण का नास ||६२६||
तब मैं आप वेग पाया। हमसौ घरणां जुध तिरए किया | मैं इसनें लीया था जांषि । तुम आया थी छोड़ साथ ।।६३०।।
बेड हांस ले प्राए तिहां रावण भूपि । नमस्कार करि ऊभा भया। बहुत भांति करि स्तुति करी
की काटि । प्राभूषण दीने मन घाट || राजसभा में दिप अनूप ॥६३१ ।। रावण सलहैं पोरष किया ||
। इसा चाहिजे रण की बढी ।।६३२ ।।
या सम सुभट न दूजा कोई मो सौं सनमुख लक्ष्यां न कोइ ।।
मेरा भय कg fee न घरचा । मेरे सन्मुख श्राखा लया ।।६३३ ।।
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