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तब लग नहीं टूटे दस सीस । बो व्याकुल हूँ कीस || fies पापी करं पुकार । ह्रां तें कोई न सकै निकार ||५४१ ।।
मैं बहुत न निकसे कहूं । अव हूं किल पर मारग गहुं || रोवें राष्या करें पुकार | विधवा भई हम मांग मंभार ।। ५४२ ॥
मुणिवर के मन भाई दया। चरण उठाइ भूमि ते लया ||
रावण द्वारा बाली की वंदना
तब रावण छुटा सिंह घरी मान भंग प्रस्तुति करी ||१४३।। गयो श्राप तिहां बैठा जती । ताकै लोभ न वपु एको रती ॥ तप प्रतापसौं दिपं देह | चिदानंद सेती प्रति नेह ||५४४ ||
जैसे लं पाणी की कार जैसा मोक्ष मारग अहंकार || रावरण तीन प्रदक्षिणां दर्द । नमस्कार करि समता भई १५४५ ॥
तुम महंत धरम पर मीत । तातं घरी धरम की रीत || मैं पापी मूरख यांन पडघो मोह फंदा में प्रान ॥ ५४६ ॥ पाप करम में किया प्रथाय । तें दुख किम करि मेटघा जाय ॥
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दीक्षा लेने के भाव
पद्मपुरा
अब तु मो प्रभु दिक्षा देह । वांह पकड़ अपनी ढिग लेह ॥ १४७ ॥ चंद्रहास तब दीनों डारि । गदा गोमती सब हथियार । मुकुट
सीस तें हारा तोडि । विद्याभरण दोने सब छोटि ११५४८ ।। कपड़े तनके डारे फार मन वैराग्य धरथा लिह बार ॥ बार बार बोले आधीन ॥ १४६ ॥
करी वंदना चौबीसी तीन
तुम भगवंत हो तारण तरण मैं दीक्षा ले सेकं चरण
हूं आयो प्रभु तेरी सरण ॥ मेरे होउ पापों का हरण ।।५५०१ प्रसरण कंप्पा घरणी देय । सठ सिलाका होइ न छेह ॥ इनका सा अर्थ नियोग । भुगतें तीन दंड का भोग ।।५५१०१
भैंसी चितप्राया कैलास पूजे श्री जिसा मन उल्लास || रावण सुधरनेन्द्र हम कहे । तेरे दया भाव चित रहे ।। ५५२ ।।
तैं तो भगति करी मन लाई । मैं सुखि घरभ भाया इस ढाई । जो तेरे मन इच्छा हो । मुझ वै मांगि लेह तुम सोइ ।। ५५३ ।।