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मुनि सभाधन्य एवं उनका पद्मपुराण
राज करत दिन बीते धने । एक दिवस एक कारण बने || चढि मंदिर देखें वन भाव। देखे हिरण जुगल एकां ।।४१८ ||
सुरत रीत के वन में फिरें। विद्यत पात तें दीक मरें ॥ ताहि निरख जाग्यो मन म्यांन | कालचक्र है पवन समान ॥४१॥
क्षिण में व्याप करे न ढील । मोह जिरण सध्यउ कील ॥
इह संसार जल बुदबुद प्राय । पल पल भाव घटत ही जाव || ४२० ॥
हय गय विभव अर्थ भंडार । पुत्र कलित्र मित्र परिवार ॥ सबै बिस्बर थिर नहीं कोय । संपई तणां विछोहा होय ॥४२१ ।।
संसार परिक्षा परिषन किया । राजरि तजि संयम लिया ॥ करम काटि पंचम गति लई । हरिषेण कथा संपूरण भई ।। ४२२॥
दोहा
सुनी कथा हरिषेण की, मनमें भयो श्रानंद || दशानन को संशय मिटयो, पूजे देव जिद ॥४२३॥ चौप
दमामन द्वारा जिन पूजा
जिनवर भवन में उतरे जाय । प्रणपति करी दशानन राय ॥ आठ दरबस्युं पूजा करी 1 जनम सफल मान्यों विह घरी ||४२४
वहां ते उति समेदगिरि गये। रेग भई शाश्रम तिह लये ॥ हसती एक महामयमंत । द्वारह् फोरस गरज करं ||४२५ ।।
लोक देख हो भगवंत । दसानन चित सोच करंत ॥ के कोई दुरजन है इह बार आया हमसों करिबा रार १।४२६ ॥
के बैन को संभाल । युद्ध करण श्राया इह कॉल || वहां सेती उटि लीनी सुद्ध | हायो देखि विचारी बुद्धि ||४२७|| कुसुमादिक विमाण परि बँटि | आपण जो हस्ती हेठ ||
सात है उदर गयंद । दस धनुष लंबा वपु छंद ||४२६ || नव धनुष ऊंचा गजराय । ऐसापति साम राषै भाव ॥ दसानन उटि ऊभा थथा निकट कर्ण के संख बजाय ॥४२॥
संख सब्द गिरिवर गिरिपडे । वरती कंपी जलहर ढरं ॥ हस्ती भागो सांकल तोहि । दसों दिसा में मांची सेर ||४३०||
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