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पपपुराण
नीषि झांकि देख्यो हरिषेन । भया दुहा का चारौं नैन || देखि कुमर गिरि कार जाय । तपसी याहि कुंवर जे भाय ।।३७६।। इह उनका वरज्या नहीं रहै । गिरि ऊपरि का मारग गहै ।। तब वे कोप उठे तापसी । आव गहि मावे घसमसी ।।३७७॥ कन्या देख दृष्टि पसार । तब बोली माता बच सार ।। हम इम सुण्यो साधु मुख बैरण । तू पटराणी माही हरिषेण ।।३७८।। तू देख परदेली ऊठि । निज तन कहा लगाव पोटि ॥ तब वोले हरिपेण कुमार । मतियन पं क्या गहुं हथियार ||३७६।। परवत छोडि चल्यो बन माहिं । मनमें चित वा सुर साझि ।। वन फल खाय वन ही में रहै । रात दिवस वारुण दुस सहै ।।३८०।। फूल पान सोचे साधरं । निस वितीत होवे इण पर ।। इस विजोग ते कन्नु न सुहाय । प्रांनी प्राण बिना सुख पाइ ॥३८१।। मन में ऐसी निश्चय कादरी : माता तुम म म । जब छह षंड का पाचं राज । जिणवर भुवण सधारों राज ॥३२॥ ऐसी चितत सिंध तट गया। नवी तीर सिंह ठाढा गया ।। तिहां नारि देखें सब घरी । गोरी बाल तकरणी गुरण भरी ।।३५३।। प्रौढा विरधा बहुत सुजान । भ्रमी स्वरूप देख इक तान ।। नयनह देख रूप प्रथाय । सिथल भयी निज घर न सुहाय ॥ ३८॥ हस्ती एक बहुत मद भरचा । पटा चुबै भय दायक परा ।। महावंत मंगल पर चढया । चरबी भोई प्रवर छह गढ़या ।।३८५।। घेरघा जाहि चले चिहं पोर । सारे नगर मचाई रोर ।। प्रावत वेलिर कहै कुमार | से महावत हाथी में टालि ।।३८६॥ महाबत कहे परदेसी सुनौं । मंगल मतबालो है धनों ।। प्रकुिस गिणे न माने पाणि । यहाँ नहीं फिर हमारे परिण ॥३८७।। किम करि यों का महरा फिरें । तु हाथें अलगो क्युन टरं ।।
साम्है गज पाछ है नदी । कहां जाई दोन्यु विष बदी ।।३८५।। - सकल नारि देखें विललाइ । महावत गज ले पहुंच्या प्राय ।। तब हरिषेण धीरज बह दिया | तुम कछु भय चित्त नारगउ तिमा॥३८६ ।।