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मुनि समान एवं
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करो न्याय राजा प्रसूनाथ । यह तो हे तुमरी सरणाय ।। या को न्याव वेग तुम करो । यह भ्रमतो डौल बावरी ॥५४॥
बोले राजा राणी सुं । सत्यघोष क्यूं कपटी घुणं ॥ बावला गहलाई क्या फिर । ताकी न्याव कवर विश्व करे || ५५ ॥ इते तो अमई तुम्हरे देस || महला कहिए किरण भांति || १६ ||
राणी बोली सुणौं नरेंस । एक जीभ कुकै दिन रात
राहणी द्वारा न्याय
जो तुम भोक् प्राज्ञा देहु नेमिक्स तोडे ति बार राजा राणी मंदिर मांहि । नेमिदत्त बैठा इक ठां ॥ सत्योन को क्या सिंह घरी प्रोहित ने हारी मुदड़ी। राणी जीत ले करमें धरी ॥
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दई मुद्रिका दासी टेर । जानु कहियो रतन मांगें रातघोष जैन पतीजे छाप हिपेषि ॥ मिश्रानी देवें नहि लाल दासी प्रायी चतुर बिसाल ॥ ६०॥ धोती पतरा जनेउ हार । दासी गई फेर लिह बार || स्यांम वस्त्र में बांधे रत्न । जौ न पत्यातउ देखिए जल्न ।। ६१॥
याको न्याव तुम मो मैं लेव ।। राजा में जाकर कियो जुहार ||२७||
नमित्त बुलवाया वान
देखे सकल रत्न परिहरे
चौपड़ खेलन बाजी घरी ।। ५८ ।।
भडारणी मैं इरण बेर ।। ५६ ।।
पोथी जनेउ घोवती देष | दीए लाल ते व्यारू' ऐषि ।।
थांग दिये रणी के हाथ । अचिरज भया पृथ्वी का नाथ ।। ६२ ।। सो क्यों सरं ॥
राजा बहुत अचंभा करं । असे ते और रत्न भराए थान । तिनमें डारे व्यास' लाल ||३३||
अपने रतन देह पहिचान ॥
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अपने थे सो लेकर घरे ।। ६४ ।।
काही सुनी जनेऊ सुरेहैं |
तब राजा प्रोति सू' कहे अब क्यों जिभ्या राई । तु पाखंडी अंतर गूढ || ६५ || मुड डि मुष काल कराय । सकल नगर मांही फेराय || देस निकारो नाम न लेहु । अब देपू तो सूली देहुँ ।।६६ ।। वाहन शिष्य जती पैं जाय । दिक्षा लई कर मन वच काय ।। नरपति ने भी दिक्षा लई । ब्रह्मविमान देव श्रिति भई || ६७॥
भाव मुंज करि क्षेत्र विदेहराजे सुत राजा मम देह ॥ सहज विचार किया मैं जोग । छोडि दिये संसारी भोग ||६८ ।।
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