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मुनि समाचंद एवं उनका पपपुराण
अस्व अस्वनी वईस्वानर 1 देव समान मव विद्याधर ।। कौतिक मंगल व्योम विद मूप । पानंदवती राणी सु अनुप ।।१६६।। तारा कन्यां दोय गर्भमई भई । कोकसी कैकसी गुणमई । वश्रय राजा के विश्रवा पुत्र । कीकसी दई विवाह संयुक्त ॥१६७।। वइस्थानर सौ इंद्र पं गई । लंका राज बिस्वानर है दई ।। सुमाली मालिवान अलंका रहें 1 मन मैं भय दुरजन का रहै ।।१६८।। सुमाली के पुत्र इक भया । रूपबंत विधानां निरमया । दिन दिन वडा सयाणा भया । बल पौरिष विद्या निरमया ॥१६॥ श्री जिनवाणी निपचे परै । तीन काल सामायिक कर ।। संका षुटक राति दिन घनी । झूटा थान पुरषारच हनी ॥१७०।। जो हम अपना देश न लहें । इह चिता निसि वासर रहै ।। इह सोच बिजयारघ गया । तपसी भेष बनवासी भया ।।१७१।। विद्या साधी मन वच काय । कवासी पिता की प्राग्या पाय ॥ विद्या निमित गई सुन्दरी । रूप लक्षण प्रवला गुण भरी ।।१७२।। विजयारध पर पहुंती तिहां 1 रतननवा सप करता तिहां ।। वाफे निकट कैकसी प्राय । कर सदन अवला बहु भाय ।।१७३।। रतनश्रवा बोल तज मौन । सांची बात कही तुम कौन ।। व किभर के हो अपछरा । कारण कोन रुदन त करा ||१७४।। कोण दुख व्यापा है तोहि । अब तुवरण सुरणावहि मोहि ।। करू दूरि सेरो दुख माजि । मन का भेद कही सच गाजि ||१७५।। व्योमविद राजा मम तात ! आई थी मुनिवर की जात ।। रतनश्रवा विद्या सिध भई । मनकी इच्छा पुरण थई ।।१७६।। कह इक नगर व इह बार । बस्या नगर सुख हुमा अपार ।। कैफसी सौं विवाह विष करी । भोग मुगत में बीतं घडी ।।१७७।। मंदिर सूरगपुरी सम जानि । सेज्या सोमै सुम्न की वानि ।।
कैकसी मन इच्छा इह भई । होई पुत्र मेरै जं दई ॥१७८|| तीन स्वप्न
सुख मैं सयन कर ही रयन । सुपन तीन देने सुख अंत ।। किचित रात रही पाछली । एक मुहरत विरया भली ॥१७॥ प्रथम सिंघ गर्जा रख कर । हस्ती हन बहुत मन धरै ।। दूजे मैंगल देख्या बली । सरोवर में बह करता रली ।।१८।। कमल उषारि लिया सुख माहि । मानू मेरे मंदिर जाहिं ।। तीजे देश्यो पूरण चन्द्र । सुपने देख मया प्रानन्द ।।१८॥