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सुनि सभाखन्व एवं उनका पद्मपुराण
fear दाहिनी गदहा पुकार । सुके वृक्ष को कवा च मार ||
गाली
आत
यह
गिता हे ३६५॥
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तो काहूं को होय न पीर ॥।
अब जो फेर चलो तुम वीर हम लंका का भोगवै राज जो फिर चलें तो सुधरे काज || १३ माली बोले सुरंग भी भ्रात । जो अब फिरें तो लज्जा जात || देस बेस में हुवा सोर । अब सुचैलो लागे षोर ।। १३८ ||
और जे सुभट श्राए हम संग ते कैसे फिरि हैं करि भंड | डरें जिको पाछा फिर जाउ । जीवत घेत न छोडुं ठाव ॥१३६॥ इतनी कह कर की दौर आस पास ते मांची गैर ।। देस परगने लूटे घने । सहस्रार राजा इम सुने ||१४||
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बोले ग्रूप इंद्र सो कहो । वाका वचन वेग तुम महो || गये लोग इन्द्र की ठोर करें वीनती दो कर जोर ।। १४१ ।। मांली नांम लंका सुनरेस । चढ़ि कर आया है तुम देस ॥ आस पास के लूटे गांव । घेरा है रथनूपुर ठांव ।। १४२ ।। सब विरतात सुन्यां जब इन्द्र । सूर सुभट मन भया आनंद ।। मंगल माला सममंद । केहरि छांह देखि भाजत ।। १४३ ।।
जब लग मोकू देखें नाहि । तौ लू वे गरमै मन मांहि ॥ राक्षस वानर मारू ठोर पड़ी जाय लंका में सोर ।। १४४ ॥
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सेन्या सगली लई बुलाइ । देस देस के नरपति नाय || विद्या जेती थी मंडार सहु वा समय लई संभार ॥ १४५ ॥ मिलह संयोग बांधि हथियार । चले सुभट तिहां लगीन बार || अस्व गयंद घने असवार । हस्ति पैं चदि इन्द्र कुमार ।। १४६ ।। चामर छत्र महा उद्योत । सूरज मुखी रतन की जोत ।। सूर सुभट दोऊ दल जुटे । पाछे पगन कोउं नहीं हटे ।। १४७ || शुभ स्यांम धरम के काज जिनकों छत्री धरम की लाज | मैगल सेती मैगल भिडे । पैदल सों पैदल जुध करें । १४८ ।। माली सुमाली मालवान । पाछे कु पग प्रहरे जांन ॥ सूरज रज अक्षर रज लाइ । राक्षस बंसी भया दिठाइ ।। १४६
फिरके समट संभाले बांन । दुरजन मारि दिये घमसान || इन्द्रकुमार कोप्या करि तेह। राक्षस बांदर मिलाऊं बेह ॥ १५० ॥
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