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सुनि सभाचंच एवं उनका पद्मपुराण
बालन से हैं बहुगली
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बासों सरभर फँसे होय । खर्मा करो समकार्ड सोहि ॥ १०७॥
माली कंवर कहैं सुनितात ! देखि निरबात भूभ क माह और इतनी काहि सेन्या सब लेई पिता शया गयंद सवार
मात्र राजा द्वारा संका पर आक्रमण
महूं करिहं प्रात ॥ लंकाराज मैं बेह बहोर ।। १०८ ।। दोन्युं भ्राता संग गुरणभई ।। विद्या बांन श्रीया संभार ||१०६
इह राज किषंदपुर गई । विषदसुरज प्रसवारी हुई ।। आए सुकेस भूप के पास सूरवीर मन बहुत उल्हास ११११०॥ मास पास के सरपनि घने वा घारी बहुते बने || उठी पण खाया पाकास घेरी लंका जुध की बास ।। १११|| वाजे बजे कुकाउ कर नाई । निरषात राय सब सैन्य बुलाय || कोप हा जो को हो बली । महा सुभट मानें मन रली ।। ११२ ।।
नेजा वरही धनुष तरबार । शुभं सुभट न लागी वार ॥ दंती सों दंती चोंदत | टूटे सूंड मस्तक दांत ॥ ११३ ॥
निरधात राजा हस्ती पलां । माली कुंवर पं पहुंच्या धान || मारि खडग रथ हारी तोडि । भाली कुंवर संभल्या बहोरि ||११४।।
लोधी खडग हस्ती पै मारि । गहे दंत बढिया तिहू बार || विद्याकर मारमा निरधांत । राक्षस वंसी जीते प्रांत ।। ११५ । भाजे विद्याषर के लोग बहुत उन मन बाढा सोग १
फेर लिया लंका का राज | भया सकल मनबंधित काज ॥ ११६ ॥२ बहुरि गये ते विषरम देस । सहस्रार मान्यां उपदेस ॥ जित तिल के जीते भूपाल । फेर बसाए नगर बिसाल ।। ११७।। आये अपने नगर बहोरि ||
राज विभूति सुतौंको दई ॥ ११६ ॥
फेरी भान्यां च्या घोर सुकेस किंषद ने दीक्षा लई राक्षसर्वसी लंका का राज । वानर बंसी किंविषपुर साज || विजयारथ रथनूपुर देस सहस्रार नरपति असेस ॥ ११६ ॥
मानु सुंदरी राणी पटधनी । चौंसठ कला रूप प्रति बनी।।
सुखमें गरभ भया सुम घरी । दिन दिन देह दुरबल होइ तिरी ॥। १२०३
नूप पूछ राखी सौं बात का तु हौइ तुम गात ॥ तुम करें की बात का दुख
| जो तुम
चाहीँ मानु सुख ।। १२१ ।।
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