________________
एमपुराण
वानिमित्त दिये तुम छोड़ 1 अबके पकडे मारउ ठौर ।। तुमने घुधि मारण की भई । तुमैं उपाघि उपाई नई ।।३२१॥ सोयत केटि दिया जगाइ । वा आगे जीवत ऋयू जाय ।। जो दादुर अहिमुख ते छ टि । फिर करिहै वांधी को धूटि ॥३२२।। ऐसे तुम निबसों इस ठौर । सुनें इन्द्र अब मार ठोरि ।। जो तुम अपनों जीवत चहौ । तो प्रपणे मारग में रही ।।३२३।। कुभकरण अब किया विगार । वा, बांधियो अब मार ॥ जो उस सीष हुवे इस बार । बहुरन कर प्रनीति लगार ॥३२४१। जो नहीं कर तुमारी कान । तो उस बांधि भेज द्यो मानि ।।
हुँ तिस कसा लगाउं हाथ । बहुरन चूक कर किरण साथ ॥३२।। दशानन का कोप
सांभन इतनी दसानन कोप । जैसें गरज कर घटाटोप ।। कहे राय सुन रेन । काक हंस होत दिलाने की मानुष इन्द्र हो किण भाति । हम सेवक है उसका गाति ।। जो मंगल गरजे मन माहिं । देष नहिं केहर की छांह ॥३२३।। तुझ पलंग डोला उपहार ! कहां गरुड तापति कर मार ।। ज्यों पतंग ते सेवं भूप । देखत मरं प्रगनि का रूप ।। ३२८॥
से इन्द्र और वैश्रवान । जेब बेग मिलें मुझ प्रान ।। तो वान छोडू जीवसा । नांतर वलिद्य दशदेवता ।।३२६।। दूत राय के सनमुख खरा । चंद्रहास खडग कर धरा ।। कंपी धरती कंप्या सूर । भभीषण उठ कहै हजूर ।।३३०॥ इस ऊपर क्या कोपो वीर । यह किंझर माया तुम तीर ।। कहे पापणे पति के बैन । या कु मारघा बात न घेन ।। ३३१॥ पर यात्रों जो मारो डार । तो अपजस होय संसार । इतनी सुनत भया मन सांत । समझाया जब सहुडै भ्रात ।।३३२।। घका दे पुर बाहर किया । वसी का भर पाया हीया ।। पगडी बांध लंका में गया । सब व्यौरा वैश्रवन सों कहा ॥३३३॥ वे तुमने पतंग सम गिनें । उनकी बात कहत न बने ।। दसानन दस सिर का धनी । अपन मन राधै अति मनी ।।३३४॥ वीस मुजा दीसे बलवंत । विद्या घणी कर परचंड ।
+