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बुनि समाचल एवं उनका पमपुराण
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अंपककुमर भए सामहि । मारधा पहनें ग्रीवा दही ।। परयो भूमि तब छूटे मांन । क्रिकंधराय तिहां पहुंच्या प्रनि ।७।। गही सिना परवत की एक । अस्वनवेग कुमारी कक ।। राजा गिर घोहे से परपा । सेवक उठाप स्वार तहा करा ॥७७।। वही देर में भई संभार । घोडे रनमा गहै हपियार ॥ रे वानर पद फिरि घेत । प्राव फेर तुझ मा षेत ।।७।। मेरा बाहगा पा सरीर । भईसा कौंन जोषा बरवीर || जाका पान मो उपर वर्ष । रण संग्राम नीति के वर्ष ।।७६॥ किकंध राजा कूद भरत । अग्या मुनि के कंप्या गात ।। साय पचार परनी पर गिरधा । बसी बार में फिर संभरण ।।८०|| उन पारी बालक को हया । याक धिन न पापी दया ।। वह पहले जो मारता मोहि । भ्राता दु:स भया मम तोह ॥२१॥ बहोत विलाप कर तिहबार । मुकेस कही बात सुवार ।। इसका था इहो लौं सनबंध । मोहि करम दुरगति का रंष ॥१२॥ ग्यांनी उत्तम कर न सोक । रण जुझ जस होय त्रिलोक ।। बहुत भाति निवारचा दुस । जो अब बचलो तो पाशे मुल ॥३॥ अस्वनवेग बज की येह । सेना घनी वाहूत है तेह ।। जासु संवर होय न कई । चलो वेग तो सुख को नहुं ।।४।। जीवंगे तो फिरि * जुध । चलणे की परकामी गुष ।। श्रीमाला करि गुपत विवाह । वैठि विमागा ले चाले ताहि ।।८५|| मंडलीक पुत्र सहर सुसार । उन फाछ दउरा तहैं बार ॥ विद्य तबाह समझावं वात । भागें को पीछा न कौने तात ॥८६॥ ए इतने सर करें विचार । वे पहुंचे लंका सुमंझार ।। लंका किंषपुरी का राज । प्रस्वनवेग का साध्या काय ।।७।। रितु सावन महा रखनीक । बोल मोर पपीहा पीक ।' पस्वनबैग मंदिर में पापा । पेल्या पनहर मन सुख बढ़ां ।।८८11 चल्यो पवन के पटल फट गये 1 राजा संमय बहुविध थर ।। ताहि देव उपज्या वैरान । राणविभूत देत सम त्याग 11|| सहलार को दीया राज | प्रापण किया सुक्ति का साज ॥ श्रवन मुनी प दीष्या लई । बारई विष तप साष गुणमई 1800