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म पुराण
द्वार बार घेरे चहुं नोर । भांजि न सकई किस ही ठोर || जहूं इनको कीजे दूर पर श्राए मारें नहीं सुर ||६०|| इनकू इहां ले आया कर्म मारो प्रबं गमावो भर्म ॥
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free नरेन्द्र की श्राग्यां पाय । सईन्या सिमिट भई इकठा १६१ ||
मैंगल सु' मैंगल चोदत | पैदल
विद्या साधी सनमुख भए । वणिवारी मागें गए ।। विद्याषर भू आकास भूमिगोचरी भूमि निवास २२६२ || पैदल भूत | जे ते हैं विद्या के वांन । दुहुधां छू दें मेह समान ॥। ६३ ।। सैची तुपक तणी भइ मार | विजयसिंघ धाइया कुमार ।। ग्रंथ सेती का इंकार | रे वानर अब हारों मार ॥ ६४॥ अथक कुंवर गही तरवार विजयसिंह मारया तिह बार ।। विद्याधर कीये भयभीत सुकेस किकं श्रंक की जीत ।। ६५ ।। विकर प्रस्वन वेग गया। जयसिंह कुंभुंठा कक्षा ।। राज सुसि पार करें उपचार ॥ ६६।। सीतल प्रौषधि वीसनवार । बड़ी बार में हुई संभार || तब कर उठ्या भार ही मार । सेनां चाली सकल पार ||६७ ॥ आदितपुर को घेरा श्राइ राक्षस वांतर वंसिन रहाय ॥ मनमें सूर तरों श्रानन्द | देखें किनर सूरज चंद ||६|| चाह' विघ के देखें देव | श्रीमाला समभावं भेव ॥ तुम हो तीन बहे सेन हैं घनी । जें तुम छिपोरि कल हुनी ||६६ ॥ बे फिरि जहि तब करो विवाह । मेरा अवन मानों नर नाह ।। अंकुर कहे सुनि बैंन । स्थालन देखें मृगपति नैन ॥७०॥ तुम नृप बैठि रो घर मांहि । सेनां सब मारों पल मांहि ॥ विद्यामंदिर प्रस्ववेष सों कहे । नीत मृजाद तुम ते रहे ।। ७१ ।। जागल कन्यां हारे माल । सोई कन्यां का भरतार | विजयसिंघ ने मांडी राडि । तातै भई उपाधि अपार ॥७२॥ अस्ववेग के हिरवे दाह । पुत्र वैर राषं मन माह ॥ बोले भूप दिखावी मोहि मेरा पुत्र वन मारा द्रोह ॥७३॥ क्रोध लहर की उठ तरंग । राक्षस वानर कु ́ नाहै भंग ॥ अस्ववेग सेन्या में गया। किकंध राय के सनमुख भया ।।७४ ||
वाकु मोहि दिखावो प्रांत । मेरा पुत्र हयां है जान | विद्यावाहून किंवधराय भयो जुध वरन्यु नहीं जाय || ७५ ॥