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मुनि सभाचन्द एवं उनका पद्मपुराण
पहली ॥
तू होयगा दस शीश का धरणी। एक सीस का तु कहतो प्रथ्वी बसि करों । झूठ कहत कुछ काज न सरौ ।। २२६|| जनमतही तु मरि क्यूं न गया। हमरी तोहि न भावी दया ।।
भोन कुमर तू अँसो सुभट | तुझ श्रागल हम पावें कष्ट ।। २२७ ।। मैं रावल पौरिष कहां गया। तेरे चित्त न भाई दया ॥ जो
तुम 'देखो मोह चढाय । सबै मलेच्छ भसम हो जाये ।।२२८ ।। भीषण सों कहे ए बैन । तुम बैठे हम होंय कुर्वन ॥
तेरा नाम भवीषण कहे । दुरजन दुष्ट न पल में है ||२२||
तुम देखत हम होई संताप । दुखे पावें हैं माई बाप ||
जो तू हमें छुडावे नहीं । बल पोरिष बहुरि गर्दै नागी तरवार दंपति को सीस कोटि कर मार्ग धरं । तजव न ध्यान उनका टरें ॥२३१॥
मारघा तिहूं बार ॥
तुम हारघा सही ||२३० | १
जे जोगीस्वर रार्ष ध्यान । निषर्च उपजे केवलज्ञान ||
जे चाहे संसारी रिध | मनवांछित की पायें सिध || २३२ ||
सरव जीव की रिश्या करें ॥
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धरम जिनेस्वर का दिल घरै तब जिया पावै मारग मोक्ष मे जन्म जरा का दोष ||२३३|| विद्या निमित्त इसा मिश्च घरी । विद्या सकल श्राय कर करी ॥ दसानन ग्यारह से विद्या लई । जिनके गुरु का पार न कहीं ||२३४ ||
जो विद्या का करों बखान पठत सुम्गत कछु अंत न ग्यांन ॥ भान करने विद्या नहीं व्यारि । तिनके गुरण बहु अगम अपार ॥२३५५
विद्या बतुर कभीषण लई । बहुत भांति सुखदायक भई ।। जो वितर आए थे तिहां । ते श्राभूषण प्रापं वहां ।। २३६ ।। नमस्कार करि में पाय । सब वितर ठाढे भए प्राय ।। विजयार पर्वत उतं । ता ऊपर गिरवण्या सुरंग ॥। २२७॥ जहां इनहिर किया प्रवेस । स्वयं प्रभु सु बसाया देस ।। कंचन कोट रतन मरिण जटा अधिक उतंग चिरणाई अटा ||२३|| कृपया पोलि पौलि ढिग करें। कलस परतमा ऊपर करें ।। चैत्यालय जिला प्रतिमा लगे । पूजा करें सामायकु धरणे ।। २३६||
तीनू भाई जिहा नरेस ||
नमस्कार कीया बहु भाय ।। २४० ।।
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बहुत लोकतिां वसै असेस अनुवर्त पक्ष आया तिल द्वाय मेनुं जस अनुव्रत नाम । श्राजा चोसो सारू काम || जंबुद्वीप में जो कछु कहीं जब चितवों तब ठावा रहीं । २४१ ||