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पद्मपुराण
स्थों अंतेवर वन में गए । ता बन सोभा देखत भए । वृक्ष ऊपर कपि बैठ्या एक । राणी कु फल मारघा फेंक ॥२॥ पाया निकट वीजुरी देह । बहुरमो चढ़ा वृक्ष के गेह ।। राय सुण्या राणी का सोर । खेंच वाण मारमा कपि ठोर ।।३।। श्रवण मुनी बैठा तप करें । बानर माय मुनी बिंग पर ।। श्री मुनि ध्यार ग्यांन का धनी । कपि में देख दया अपनी ॥४॥ कति करण सुणाये पंच प्रभु नाम | महोदय नाम सुर पंटाम ।। प्रवधि विचार एक भव तनी । आई सुरति क्रोघ कंपनी ।।५।। कपि देही लें भया हुं देव । विद्य त बेम स्यु' भाष्यो भेव ।। माया रूपी साजी सैन । जहां तहां कवि कर कुचन ।।६।। विध तवेग सोचं मनमाहिं । के षेपर के भूषर प्राई । यासों जुध करें चद्धि षेत । बांषु सगली सन समेत ।।७।। सेन्यां लेकर सनमुष मल्यो । चहुंधा धानर कोया हदः ।। धरती पग चोटी माकास । मुख विकराल भयानक रास ।।८।। लंबे दांत भयदाई परें । सूरवीर धीरज नहीं घरं ।। केई परवत लेय उठाइ । केई विरख उठावै प्राय ||६|| ले ले दौडै एक वार । मारि मारि कपि कर पुकार || विद्यु तवेग नै मानी हार । गया जहां महोदय सुकुमार ।।१०11 देव विचारया हिरदय ग्यान | परि पाये कीजे सनमान 11 राजास्थों समझाई बात । मैं वह बंदर मारा प्रात ।।११॥ साथ प्रसाद भया मैं देव । चालो मुनि पै पूर्छ भेव ।। राजा देव गए मुनि पास । दई प्रकम्मा पूजी पास ॥१२॥ सुर षेचर दोउ स्तुति करें । साधु संगति भव सागर तिर । देव तणी गति वानर लही । पंच नाम करण तें सही ।।१३।। जो कोई रोब तुम्हारी कर । मन वच काया दृढ कर घरै ।। मुगति पंथ सो लेय तुरन्त । तोरं जनम जरा का अन्त ।।१४॥ यव प्रभूजो कहिए कछु परम । नासें पाप मिल पद परम ॥
मुनिवर कहैं घरम का भेद । प्रसुभ करम का हुवा खेद ।।१५।। मुनि का उपदेश
पंच अणुवत श्रावक करें । महायत जोगीस्वर घरै ।। कुगुरु कुदेवा माने नहीं ते । उत्तम कुल श्रावक सही ।।१६।।